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________________ ११८ पाश्वनाथ इस प्रकार खींचातानी शुरू हो गई। इस खिंचातानी मे आचार्य के हाथ की झोली छिटक गई । सोने के आभूषण पातरों मे से निकल कर विखर गये। गहनो के विखरते ही श्रावक चौक उठे। बोले-'अरे । यह मामला क्या है ?' एक ने कहा-'यह तो मेरे काया नामक वालक के गहने है। दूसरा बोल पड़ा-'और यह गहने मेरे अपकाया नामक लड़के के हैं। इस प्रकार भौचके होकर उन्होंने छहो के नाम बतलाये। आचार्य यह अनपेक्षित घटना देखकर लज्जा के मारे मानो गड़ गये । वे अपना मुँह अपर न कर सके । वे अपने कुकृत्य पर घोर पश्चात्ताप करने लगे । सोचा-धिकार है मुझे, जिसने साधुत्व के साथ मनुष्यत्व की भी हत्या कर डाली । सच पूछो, तो मैंने बालकों की ही हिंसा नहीं की, किन्तु धर्म-कर्म की, और अपने आत्मा की भी हिंसा कर डाली है । ऐसा परिणत और क्रूर कर्म करके मेरा जीवित रहना ही अकारथ है। हाय जिस पवित्र साधु-वेप पर जनता न्योछावर होती है, जिसकी प्रतिष्ठाअसीम है, उसी वेषको मैंने कलंकित किया! प्राचार्य का यह मनस्ताप देव से अज्ञात न रहा। वह उनक रंग ढंग देख कर समझ गया, कि आचार्य का हृदय पश्चात्ताप की अग्नि से कोमल हो रहा है। और वे सुधार के पथ पर अग्रसर हो रहे है। उसने अपना पूर्व शिष्य का रूप बनाया और अपने गरदेव के चरणों में गिर पडा। गरुजी उसे देखकर मानो सोते से जाग उठे। बोले-"अरे । शिष्य । तुम हो ?" शिष्य बोला-जी हां, अब मैं देव हो गया हूँ। गुर-तुम देव हो गये थे, तो क्यों न मुझे पहले ही सूचना द दी १ इतना विलम्ब करके क्या मेरी जन्म-जन्म की जी पर पानी फेर दिया ? तुम्हारे बिलम्बने मेरा तोसत्यानाश कर दिया।
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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