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________________ १२० पार्श्वनाथ in ... . . . . . .m aum.ne.mamar सम्यक्त्व का छठा अंग स्थितिकरण' है । सम्यग्दशेन या सम्यक्चारित्र से किसी कारण-वश विचलित होने वाले साधर्मी को पन: सम्यग्दर्शन या चारित्र में स्थापित करना स्थितिकरण है। संसार मे बहुत से अनुकूल और प्रतिकूल प्रलोभन है। इन्द्रिया और मन सना विपयों की ओर आत्मा को घर्सट ले __ जाने के लिये उद्यत है। धर्मात्मा प्राणी बहुत सम्भल सम्भल कर चलता है, इन्द्रियों और मन पर पूरा नियन्त्रण रग्यता है । फिर भी अनादि काल के सामारिक संस्कारों का, अजात रूप से उदय हो जाता है । उस समय आत्मा अपने दर्शन-चारित्र के मार्ग से डिगने लगता है । यदि कोई दूसरा धर्म-परायण व्यक्ति ऐसे समय मे सहायक हो जाय और उसे फिर धर्म मे निष्ठ बना दे, तो न केवल वह दूसरे का ही उपकार करता है, वरन् आत्मा का भी कल्याण करता है । अतएव सम्यग्दृष्टि जीव यह समझकर कि निज वर्म-जिन धर्म अर्थात् आत्म-धम की ओर अभिमुख होना और पर-धर्म अर्थात् इन्द्रिय-यम से सर्वथा विमुख होना तलवार की धार पर चलने के समान कठिन है, स्थितिकरण का सदैव ध्यान रखना है। जो लोग किसी प्रकार की निर्बलता से पड जाते है, उन्हे स्वर्ग, नरक, मुक्ति आदि का यथार्थ स्वरूप समझा कर अथवा अन्य प्रकार से धर्म-स्थित बनाना सम्यक्त्व का भूपण है । जो महाभागी, इस भषण से भषित होता है, वह तीसरे, सातवे या आठवे जन्म मे अवश्यमेव मुक्ति का स्वामी बनता है । यह सर्वज्ञ भगवान का कथन है। अतः इस मे शंका को कोई स्थान ही नहीं है। जो पुरुप, वर्म-पतित बन्धुओ को अपने तन-मन धन-ज्ञान आदि द्वारा किसी भी प्रकार समझा-बझाकर इधर्मी और प्रिय.
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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