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________________ छठी जन्म nner van हो सकती । विशेषतया ऐसे क्षेत्र मे, जब कि साधना का विपय अत्यन्त परोक्ष होता है, बुद्धि बहुत वार मचल जाती है । उसे श्रद्धा के अंकुश से ठिकाने पर लाना पड़ता है। लोक-व्यवहार में भी श्रद्धा की आवश्यकता है। जो दूसरों पर अति अविश्वास करता है, वह दूसरों को अपने प्रति अविश्वास करने की प्रेरणा करता है। रोगी यदि औषध पर विश्वास करता है, तो उसे आरोग्य लाभ होते देखा जाता है। बहुत-से उपचार केवल मानसिक भावना पर ही अवलंवित है। लाखो करोड़ो रुपयो का लेन-देन विश्वास के बल पर ही चलता है। इस प्रकार जिसके अतःकरण मे धर्म, आत्मा, मुक्ति, परलोक आदि विषयों मे निश्चल श्रद्धा है, वही धर्म में बढ़ रह सकता है । वही धर्मनिष्ठ कहला सकता है । जो संशयशील है, जो संदेह के झूले मे मलता रहता है, वह इतो भृष्ट स्ततो भृष्ट.' होता है। और 'संशयास्मा विनश्यति' इस उक्ति का पात्र बनता है । अतः वीतराग भगवान् के वचनों पर रंचमात्र भी अश्रद्धा नही करना चाहिए । श्रद्वा का अर्थ अंधविश्वास नहीं है। अंध विश्वास और अश्रद्वा मे बहुत अन्तर है । श्रद्धा में विवेक को पूर्ण स्थान है । और अंध विश्वास अविवेक पर आश्रित है । अन्ध विश्वास से परीक्षा का सर्वथा अभाव होता है । पर श्रद्धा मे परीक्षा-प्रधानता होती है। अंधविश्वासी सत्- असत् की ओर दृष्टि निपात ही नहीं करता। और श्रद्धाल सत्-असत् पर पर्याप्त विचार करता है। - बात यह है, कि संसार मे बहुतेरे ऐसे विषय है, अनेक ऐसे तत्त्व है, जिन पर हमारी बुद्धि का, हमारे तर्क का प्रकाश पहुँच सकता है । पर बहुत से ऐसे भी विषय है, जहां वृद्धि की पैठ नहीं है, तर्क का जहां प्रवेश ही असंभव है । ऐसे तत्वो को यदि
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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