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________________ पाश्वनाथ M - - ज्ञान नष्ट होजाते हैं ! इससे यह भली भॉति प्रमाणित है कि आत्मा कर्मों के बंधन मे पडकर मृत हो रहा है और वही पुण्यपाप का कर्ता और उनके फल का भोक्ता है। आगम में कहा अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय सपट्टिो ॥ निन्थ-प्रवचन। अर्थात्--आत्मा ही पापो को करने वाली और उनसे मुक्त होने वाली है। वही सुख-दुःख उत्पन्न करती है। आत्मा स्वमेव अपना मित्र है और स्वमेव अपना शत्रु है। आत्मा अपने ही कार्यों से यशस्वी या अयशस्वी बनता है। ___ भाई कुबेर, तुम कहते हो अच्छे बुरे कार्यों का फल नही होता । परन्तु थोड़ी-सी सावधानी से विचार करो इस संसार मे कर्म फल के शतश उदाहरण तुम्हें देखने को मिलेगे। एक व्यक्ति पालकी मे ठाठ से बैठता है और दूसरा पालकी को कंधो पर रख कर उठाता है। एक व्यक्ति सुन्दर स्वादिष्ट और वहुमूल्य भोजन खाते२ उकता जाता है और दूसरे को रूखी सखी रोटी के दो टुक्ड़े भी नसीब नहीं होते। एक के पास अनेक गगन-चुम्बी विशाल प्रासाद हैं दूसरा किसी वृक्ष के नीचे अपना डेरा-डडा जमाए है । एक कड़ाकेकी धूप मे खसखसकी टट्टियों मे बैठा है दूसरा तवे के समान तपी हुई पथ्वी पर नंगे पैर और नगे शरीर खेत मे हल चला रहा है। इन दोनों मे इतना अन्तर क्यो है ? रिद्रही अधिक पुरुषार्थ करता है फिर भी वही क्यो अधिक दरिद्र रहता है ? एक ही माता-पिता के दो पुत्रो मे, जिनका समान रूप से लालन पालन और शिक्षण हुआ है तथा जो समान वातावरण
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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