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________________ छठी जन्म ६१ गया । बारहवें दिन अशुचि कर्म से निवृत्त होने पर पुत्र का नाम 'वज्रनाभ' रखा गया । वज्रनाभ का शैशवकाल अत्यन्त स्नेह और लाड़-प्यार से बीता । यथासमय कला - आचार्य से उसने अस्त्र-शस्त्र और शास्त्रों का अध्ययन किया और उनमें पूर्ण निपु ता प्राप्त की । यौवन अवस्था में बंग देश के राजा चन्द्रकान्त की सुन्दरी और सुलक्षणा कन्या के साथ उसका पाणिग्रहण संस्कार हो गया । वज्रनाभ आमोद-प्रमोद के साथ सॉसारिक सुखों का आस्वादन करता हुआ समय व्यतीत करने लगा । एक बार वज्रनाभ के मामा का पुत्र कुबेर अपने घर से रुष्ट होकर वज्रनाभ के पास आया । कुबेर कट्टर नास्तिक था । वह कभी-कभी अवसर पाकर वज्रनाभ के सामने जैनधर्म की निन्दा करने लगा । वज्रनाभ गंभीर प्रकृति का था । कुवेर अपने घर से रुष्ट होकर आया था और उसे सान्त्वना की आवश्यकता थी । सम्भवतः इस कारण अथवा उचित समयकी प्रतिक्षा करनेके कारण वज्रनाभ ने मौन रहना ही उचित समझा। उसने विचार किया किन्ही मुनिराज के आने पर कुबेर की सब शंकाओं का समाधान हो जायगा । यद्यपि वज्रनाभ कुबेर की शंकाओ का निरसन करने मे समर्थ था फिर भी मुनिराज से समाधान कराने का उसने विचार किया । इसका एक प्रवत्त कारण और भी था । चारित्रहीन ज्ञान न तो इतना ठोम होना है न उसमे दूसरो पर प्रभाव डालने का विशिष्ट सामर्थ्य ही । चारित्र स्वयं एक अमोघ शक्ति है और वह ज्ञान को भी सामर्थ्य - सम्पन्न बनाता है । यही कारण है कि ज्ञान का फल चारित्र कहा गया है । जब तक चारित्र नही होता तब तक ज्ञान को अपूर्ण और अफल माना गया है । वननाभ ने चारित्र की इस महत्ता को समझकर कुछ समय और
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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