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________________ चौथा जन्म कथनानुसार फिर वही भीपण रोग उत्पन्न होगया । अव की उस रोग का अन्त तब हुआ जब राजा के प्राण-पखेरू उड़ गये। आम की दो-चार फॉकों के समान मधरतीत होने वाले संसार के जघन्य और तुच्छ विपय-भोगों में फंस कर संसारी जीव मोक्ष के सुलों से वंचित हो जाते हैं । इसलिए राजन् ! इस अनमोल अवसर को हाथ से न जाने दीजिए। समय रहते अपनी आत्मा के लोकोत्तर कल्याण के लिए प्रयत्न कीजिए । सांध-धर्म को धारण कीजिये और यदि इतना सामर्थ्य या साहस न हो तो श्रावकधर्म को तो अंगीकार अवश्य कीजिए। दोनों में से एक को ग्रहण करना मनष्यमात्र का कर्तव्य है, क्योंकि धर्म ही मनष्य का सच्चा सखा और सहायक है । मृत्यु अवश्यंभावी है और मत्यु के पश्चात् धर्म ही साथ देगा । तुम्हारा यह विशाल साम्राज्य स्नेही स्वजन और धन से परिपूर्ण खजाना-सव कुछ यहीं रह जायगा। अतः दीर्घ दृष्टि से विचार करो और भविष्य का साथी खोजलो।" आचार्य महाराज के इस भावपूर्ण एवं गंभीर उपदेश का प्रभाव राजा पर भी हुआ और अन्य श्रोताओं पर भी। अनेक श्रोताओं ने भावक के व्रत अंगीकार किये । राजा करणवेग संसार से पूर्ण विरक्त हो गया। उसे इस निस्सार संसार का असली स्वरूप दिखाई देने लगा। वह वोला-भंते ! आपके पावन उप. देश रूपी अमत-अंजन से मेरे नेत्र खुल गये है। अब तक मुझे वह निर्मल दृष्टि प्राप्त न थी। मेरे समक्ष अव यह संसार ही जैसे बदल गया है। मुझे यह बड़ा रौद्र प्रतीत होता है। मै साधु-धर्म को स्वीकार कर आपके चरण-कमलों का आश्रय लेना चाहता हूँ।
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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