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________________ दूसरा जन्म प्रथम स्वर्ग में दिव्य तेज का धारक देव हुआ।" आशय यह है कि जब तक कोई भी धर्मक्रिया केवल शारीरिक रहती है और अन्तःकरण से उसका स्पर्श नही होता तब तक वह अपना फल प्रदान नहीं करती। भावहीन चारित्र विडम्बना मात्र है। मन प्रधान है। आत्मा का उत्थान और पतन मन की शुभाशुभ परिणति पर ही निर्भर है । सार्थवाह आप भी जो उपासना करे उसमें परिणामों की निर्मलता रखे, तभी वीतराग देव की आराधना सार्थक होती है। मुनिराज अरविन्द का प्रभावपूर्ण उपदेश सुन सार्थवाह सागरदत्त ने उनसे श्रावक के व्रत ग्रहण किये। वह देशविरति का आराधक श्रावक बन गया। मुनिराज ने वहां से विहार किया और सागरदत्त भी चल दिया। एक बार फिर मुनिराज अरविन्द की सेठ सागरदत्त से विन्ध्याचल की खोह में स्टे हो गई, जहां भाची पार्श्वनाथ का जीच मरुभति हाथी के रूप मे रहता था । उस दिन वह हाथी अपने यथ के साथ जल पीने के लिए सरोवर के समीप पहुंचा तो क्या देखता है कि वहां किसी का पड़ाव पड़ा है। वह आग ववला हो गया। उसने मेघ की गर्जना को तिरस्कृत कर देने वाली प्रवल चिंघाड की और पड़ाव के मनुष्यो की ओर झपटा। पड़ाव के सभी मनुष्य मदोन्मत्त और क्रुद्ध हाथी को चिंघाइते हुए अपनी ओर आता देख अपनी-अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर भागे । मुनिराज पड़ाव के पास ही ध्यानमग्न थे। हाथी बिगड़ता हुआ उनकी ओर मुडा । ज्यो ही वह उनके समीप पहुंचा त्यों ही उसने अपने आपको अशक्त सो पाया, मानो किसी ने मंत्र द्वारा उसके अप्रतिहत सामर्थ्य को कील दिवारो।
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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