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________________ VAVAN दूसरा जन्म rrowaima.marwarmarrn varmmm अक्षुएण रखना चाहिए।" __इस प्रकार रानियों को समझा बुझाकर राजा अरो उन्हें शान्त किया। उनके अध्यवसाय विशुद्ध होते गये। पार. णामों की विशेप विशुद्धता से उनके अवधि ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होगया और अवधिज्ञान का उदय हुआ। अवधिज्ञान होने पर उन्होंने अपने पुत्र महेन्द्र को राजसिंहासन पर आसीन किया और अपना समस्त राजकीय उत्तरदायित्व एवं अधिकार उसे सौप दिये । तदनन्तर श्रीभद्राचार्य के चरण कमलों में उप. स्थित होकर उनसे दीक्षा अंगीकार की। अपने गरु श्री भद्राचार्य से उन्होंने चौदह पर्यों का ज्ञान सम्पादन किया और विशिष्ट साधना के निमित्त एकल विहारीपन धारण किया। उसी दिन से वे पहाड़ो की गुफाओं में रहने लगे। मुंह पर बांधने के लिये मुंहपत्ती और जीव-रक्षा के लिये रजोहरण उनके पास था। भिक्षा के लिए नियत समय पर बस्ती में जाते । एक वस्त्र और पात्र ही वे रखते थे। उन्होंने जिनकल्प धारण कर लिया था। जिस वस्ती में यह मालूम हो जाता कि जिनकल्पी मुनि यहां आस पास के जंगल मे ठहरे हुए हैं वे उस वस्ती से दूर अन्यत्र कहीं जंगल में चले जाते थे। जिनकल्पी मुनियों का आचार अत्यन्त दुधर है। इस कल्प को वन-ऋषभनाराच संहनन के धारी महा सत्वशाली महात्मा ही धारण कर सकते हैं। इस काल मे उक्त संहनन का बिच्छेद हो जाने से जिनकल्प का भी विच्छेद हो चुका है। . अरविन्द मुनि ने जिनकल्प धारण करते ही एक एक महीने की तपस्या आरम्भ करदी । एक वर्ष में उन्होंने केवल बारह बार आहार ग्रहण किया। इस घोर तपस्या से उन्हें अनेक लब्धियो
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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