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________________ २४६ पार्श्वनाथ त्याग किया। सोमल न बीच की अपनी मिथ्या प्रवृत्ति की आलोचना नहीं की। अतः उसे उतना उच्च सुख न मिल पाया, जितना तपस्या के फल-स्वरूप मिलना संभव था। फिर भी वह शुक्र-विमान मे देवता हुआ। यह शक्र देव शुक्र विमान में एक पल्योपम की आय व्यतीत करके महाविदेह क्षेत्र मे उत्पन्न होकर वहा समस्त कर्मो का क्षय करके मुक्ति प्राप्त करेगा। ___ मनुष्य अपने विवेक के अनुसार प्राय. सन्मार्ग को स्वीकार करना चाहता है और सत्पत्ति करना चाहता है। किन्तु उसकी ज्ञान शक्ति और क्रियाशक्ति परिमित होती है । इस परिमिति के कारण ज्ञान और अज्ञान रूप मे अनेक भले हो जाती है। ऐसी अवस्था मे मनुष्य का कर्तव्य है, कि वह भूल मालुम होते ही उसकी निन्दा-गह करे और उचित प्रायश्चित लेकर शुद्धि करले । जो भूले अज्ञात हों उनके लिए सामान्य रूप से पश्चात्ताप कर ले। यह शुद्धि का जिनोक्त मार्ग है। इसीलिए प्रतिक्रमण, आलोचना प्रायश्चित्त, आदि की व्यवस्था की गई है । यह क्रियाएँ मानवजीवन को अभ्युन्नत बनाने के लिए अत्यन्त आवश्यक है । इनसे आत्म-निरीक्षण होता है, अपनी निर्वलता और प्रवलता ज्ञात हो जाती है और आगे क लिए सावधानी प्राप्त हो जाती है। सोमल तापस ने अपनी पहले की प्रवत्तियो की ओर दृष्टि निपात किया होता, तो उसकी तपस्या के फल से न्यूनता न आती। एक बार प्रभ पाच नाथ, विचरते हुए पङ्ग देश के अन्तर्गत साकेतपुर पधारे । उन्हीं दिनों एक विशेष घटना घटित हो गई। पर्ने देश मे ताम्रलिप्त नगरी मे वन्धदत्त नामक एक बड़ा भारी व्यापारी रहता था। उसी शहर मे एक ब्राह्मण भी रहता था। माह्मण की पत्नि कुलटा थी। उसने ब्राह्मण को विप दिलवा कर
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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