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________________ श्रतज्ञान २०५ ___औत्पातिकी, वैनयिकी, पारिणामिकी और कार्मिकी, यह चार प्रकार की शास्त्रों में वर्णित वद्धियां भी मतिज्ञान का ही रूप है। मतिज्ञान के भेदो में इन्हें भी सम्मिलित कर दिया जाय तो ३४० भेद हो जाते है। श्रुतज्ञान मतिज्ञान उत्पन्न हो चकने के बाद जो विशेप ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है । श्रुतज्ञान, शब्द और अर्थ के वाचक-वाच्य संबंध को मुख्य करके शब्द से संबंध वस्तु को ग्रहण करता है। श्रुतज्ञान के विभिन्न अपेक्षाओं से अनेक भेद है। मुख्य रूप से उसके दो भेद है--(१) अङ्गप्रविष्ट और (२) अङ्गबाह्य । तीर्थकर भगवान द्वारा साक्षात उपदिष्ट आचारांग, सूत्रकृताग, स्थानांग आदि बारह अगो को अथवा उनसे होने वाले अर्थबोध को अंगप्रविष्ट श्रुतज्ञान कहते हैं और द्वादशांग के आधार पर निर्मित दशवकालिक, नन्दी आदि सूत्रों तथा विभिन्न ग्रंथों से जो अर्थबोध होता है वह अंगबाह्य श्रुत है । श्रुतन्नान के एक अपेक्षा से चौदह भेद भी है और वीस भेद भी हैं। विस्तार-भय से उनका उल्लेख यहां नहीं किया जाता है। जैन सिद्धान्त मे मुख्य स्थान रखने वाला नयवाद श्रुतज्ञान का ही एक अग है । श्रुतज्ञान अनन्त धर्मात्मक वस्तु को विषय करता है और नय उसके एक अंश-धर्म को ग्रहण करते है। आंशिक ग्रहण ही लोक व्यवहार मे उपयोगी होता है। नय ही अनेकान्त के प्राण है । जैनदशेन मे अनेक स्थलों पर नयो की और अनेकान्तवाद की विशद विवेचना की गई है। जब कोई व्यक्ति निर्वल हो जाता है तो वह विना सहारे
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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