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________________ मतिज्ञान २०३ (५) केवलज्ञान । यहाँ इन पॉचो ज्ञानों का संक्षिप्त स्वरूप लिख देना उचित होगा। मतिज्ञान इन्द्रियो और मन की सहायता से जो ज्ञान होता है उसे मतिज्ञान कहते है । इसके मूलत: चार भेद हैं-अवग्रह, ईहा, अपाय, धारणा । दर्शनोपयोग के बाद, ज्ञानोपयोग मे सब से पहले, मनुष्यत्व आदि सामान्य का ज्ञान होना अवग्रह है । अवग्रह के बाद संशय होता है । उस संशय को हटाते हुए जो कुछ विशेष ज्ञान होता है उसे ईहा ज्ञान होता है । जैसे-'यह महाराष्ट्रीय मनुष्य होना चाहिए ' ईहा के पश्चात् आत्मा इस संबध मे और अधिक प्रगति करता है । उस समय वस्तु का पूरा निश्चय हो जाता है । जैसे—'यह महाराष्ट्रीय मनुष्य ही है। इस प्रकार के निश्चयात्मक ज्ञान को अवाय या अपाय कहते है। जब हमे किसी वस्तु का ज्ञान होता है तो उसका एक प्रकार का चित्र-सा हमारे हृदय-पट पर अंकित हो जाता है। कोई चित्र धुंधला होता है और कोई स्पष्ट होता है । इस चित्र का अंकित हो जाना ही धारणा है। जो चित्र जितना अधिक गाढ़ा होता है उसकी धारणा भी उतनी ही प्रगाढ़ होती है।। धारणा से ही स्मृति ज्ञान उत्पन्न होता है। हम अनुभव करते है कि कोई-कोई बहुत पुरानी घटना हमे ज्यो-की-त्यो याद रहती है और कोई-कोई ताजी घटना भी विस्मति के अनंत सागर में विलीन हो जाती है । इसका कारण धारणा की प्रगाढ़ता और अगाढ़ता ही है । जो धारणा खूब प्रगाढ़ हुई हो उसके द्वारा अधिक समय व्यतीत हो चुकने पर भी स्मति उत्पन्न हो जाती है
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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