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________________ १६६ wwwwwww भगवान् एक कुएँ के सन्निकट वट-वक्ष के नीचे ध्यानमग्न होकर खड़े रह गये | भगवान् का अनेक जन्मों का विरोधी मेघमाली देव वहां आ पहुँचा । भगवान् को देखकर उसे प्रचंड क्रोध आया । उसने विकराल हाथी का रूप बनाया और भूतल को विकंपित करता हुआ, दिशाओ को बधिर करने वाली चिंघाडने की ध्वनि करता हुआ प्रभु की ओर लपका। उसने प्रभु को अपनी सूंड मे पकड लिया | अनेक प्रकार के कष्ट दिये पर भगवान् सुमेरु की तरह अचल बने रहे। उन्होंने भौतिक शरीर के प्रति ममत्व का भाव त्याग दिया था । शरीर मे रहते हुए भी वे शरीर से मुक्त थे । जैसे मकान के ऊपर चोट होने पर भी मकान मे रहने वाला व्यक्ति वेदना का अनुभव नहीं करता, क्योकि वह मकान को अपने से भिन्न मानता है उसी प्रकार जो योगी शरीर को आत्मा का निवासस्थान मात्र समझते है, उससे ममता हटा लेते हैं, उन्हें भी शरीर की वेदनाएं वैसी नही जान पडती जैसे इतर प्राणियों को जान पड़ती है । इसी कारण भगवान पार्श्वनाथ को मानो वेदनाओ ने स्पर्श भी नही किया । वे अपने ध्यान में मग्न रहे । देव पराजित हो गया । ^^ ^^r 14 पार्श्वनाथ đa tro पराजय से व्यक्ति या तो दीनता धारण करता है या उसका कोध और भी प्रचंड हो जाता है । देव पराजित होकर और अधिक प्रचंड हुआ । उसने सिंह, व्याघ्र और चीते के रूप धारण करके दहाडे मारी। भगवान को भयभीत करने का प्रयत्न किया, क दिये, पर उसकी दाल न गली । अन्त में उसे निष्फलता मिली | पर देव की दुष्टता इतनी ओछी न थी कि वह शीघ्र नमान हो जाती। और व्यावा महाया, त्रिसिखाया । उसने यी नार अत्यत भयंकर जंग का रूप बनाया। साथ ही
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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