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________________ १६४ पार्श्वनाथ हो रहा है । कर्मों के आगे राजा-रंक, सधन निर्धन, सवलनिवल किसी की नहीं चलती । कसे देखते-देखते राजा को रंक, सधन को निर्धन और सवल को निर्वल बना डालते हैं । परन्तु अात्मा की शक्ति कमों से कम नहीं है । वह अपने स्वरूप को समझे, अपनी शक्तियों को पहचाने और आत्मविकास के लिए उग्र प्रयत्न करे तो अन्त से उसी की विजय होती है। आदि तीर्थकर भगवान् ऋपभदेव जैसे त्रिलोकवंच महापुरुष को कर्मों के वश होकर एक वर्ष तक आहार न मिला। दाता थे, दान करने योग्य द्रव्य था, दाताओं की प्रस पर असीम भक्ति थी, फिर भी उन्हे निराहार रहना पड़ा। यह कर्म का ही प्रताप था। अन्यथा जो लोग आदिनाथ के सामने हीरा-मोती आदि रत्न, हाथी-घोडे आदि सगरियां, उत्तमोत्तम वस्त्र-पात्र आदि वस्तुएँ लेकर सामने आते थे, उन्हें भेट देकर कृतार्थ होना चाहते थे, वही दाता क्या उन्हें आहार नहीं दे सक्ते थे ? पर पूर्वोपार्जित कर्म का उदय होने से दाताओं को निरच्च मुनि. जन-भोग्य आहार देने की कल्पना ही नहीं आती थी। व ऐसे उत्तम और महान् परप को भोजन जैसी सामान्य वस्तु देने मे उनका अपमान नमझते थे । जब प्रभु आदिनाथ ने कर्मों का कर्ज चुका दिया तब उन्हे ग्राहार की प्राप्ति हुई। जब परम परुप आदिनाथ जैसों को कर्म का फल भोगना पडा तो औरा की क्या गिनती है। दूसरे फल-भोग के बिना कैसे घट सकते है १ दत्तजी ने भी कर्म-बंध कर लिया है । वह बंध अब बिना भोगे मिट नहीं सकता। वह तो भोग लेने पर ही स्टेगा। पर उन्होंने महामन्त्र का जाप करके जो पण्य उपार्जन रिया है उमरा फल भी मिट नहीं सन्ता । मुर्गा पर्याय का
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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