SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पार्श्वनाथ से भ्रमण के लिए निकला जिसमें प्रभु पार्श्वनाथ विराजमान थे। उद्यानपाल ने राजा को भगवान का वृतान्त कहा । वह बोला'अन्नदाता ! महाराज अश्वसेन के सुपुत्र पार्श्व इसी उद्यान मे विराजते हैं और तप तथा संयम का आचरण करते है।' राजा प्रभु की सेवा में उपस्थित हुआ। राजकुमार को ऐसी कठिन साधना मे निमग्न देख पहले-पहल तो उसे आश्चर्य हुआ । फिर कुछ अधिक विचार करने पर मालूम हुआ, कि पहले भी मैंने ऐसे मुनि कही देखे हैं । इस प्रकार विचारते-विचारते राजा को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। इस विशिष्ट ज्ञान के उत्पन्न होते ही जसके नेत्रों पर पड़ा हुआ पर्दा मानों हट गया । उसे अपने पूर्वजन्म साफ-साफ दिखाई देने लगे। 'वक्त्रं चक्ति हि मानसम्' अर्थात् चेहरे पर उदित होने वाले भाव मन का रहस्य प्रकाशित कर देते है, इस नीति के अनुसार राजा को विचारों मे तल्लीन देखकर मंत्री ने उसके विचारों को ताड़कर पछा'महाराज ! क्या आपको कोई नई बात ज्ञात हो रही है ?' राजा ने कहा 'हां मंत्री, अभी-अभी पार्श्व प्रभु पर दृष्टि पड़ने से मुझे एक अद्भुत ज्ञान प्राप्त हुआ है। ऐसा ज्ञान मुझे कभी नहीं हुआ इस ज्ञान के प्रभाव से मैं अपने पूर्व भवों को जान रहा हूँ " मंत्री ने विशेष जिज्ञासा प्रकट की तो राजा कहने लगा इसी भारतवर्ष मे वसंतपुर नामक एक नगर है । उस नगर मे निमित्त शास्त्र का एक धुरधर विद्वान् दत्त नाम का ब्राह्मण रहता था। उसे कर्मोदय के कारण कुष्ट व्याधि हो गई। इस व्याधि से वह अत्यन्त दुखी रहता था । उसने बड़े-बड़े चिकित्सकों से बहुत प्रकार की चिकित्सा कराई पर आरोग्य-लाभ न हुआ। उसका शरीर सड़ रहा था। सारा. शरीर घिनौना और
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy