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________________ बारह सारना १७५ मुनि का पागभाव तथा तप या ज्या बढ़ता जाता है त्या-त्या निर्जरा भी बढ़ती जाती : प्रथमोपशम सम्यक्त्व की उत्पत्ति के समय करणत्रयवर्ती विशुद्ध परिगाम वाले मिथ्यावष्टि के जितनी निर्जग होती है उससे नसण्यात गनी निर्जरा असंयत सम्यग्हष्टि को होनी है । दरनी प्रकार श्रावक, मुनि, अनन्तानुबंधी कपाय का विसयोजक, दर्शनमोहनपक, उपशम श्रेणी वाला उपशान्त मोह, नपक श्रेणी वाला. नीणमोह, सयोग केवली, और अयोग केवली के उत्तरोत्तर असंख्यात-असंख्यात गुनी निर्जरा होती है। जो मुनि दूसरे द्वारा कहे हुए दुर्वचनो को सुनकर कपाय नहीं करता, अतिचार आदि लगने पर यदि आचाये कठोर वचन कहकर भर्त्सना करे, निरादर करे या प्रायश्चित न तो शान्ति के साथ सहन करता है तथा उपसर्गों को समतापूर्वक भोगता है उसके विपुल निर्जरा होती है। उपसर्ग या परीपह को चढ़ा हुआ ऋण समझकर जो मुनि समता से उसे चकाता है, शरीर को मोह-ममता जनक, विनश्वर एवं अपवित्र मानता है, जो अात्मस्वरूप मे स्थिर रह कर दुष्कृत की निन्दा करता है, बाह्य या अंतरंग तपस्या करता है, गुणी जनो का आदर करता है, इन्द्रियो और मन को गप्त करता है वह विशेष निजरा का पात्र होता है।। ___ इस प्रकार निर्जरा भावना से सावित अन्तःकरण वाला मुनि निर्जरा का पात्र बनकर सिद्धि पाता है। (१०) लोक भावना जहा जीव-अजीव आदि भावों का अवलोकन होता है उसे -लोक कहते है । लोक के बाहर का समस्त खाली प्रदेश जो
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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