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________________ १६६ पार्श्वनाथ ^ VaarNAVAMA जिस देह के संबंध से स्त्री, पुत्र, मित्र, बान्धव आदि की कल्पना करके राग-वृद्धि की जा रही है वह देह ही एक दिन अग्नि में भस्म हो जायगा, मिट्टी मे मिल जायगा या कोई जीवजन्तु खा जायगा । तब यह संबंध स्वत. नष्ट हो जाएँगे । इनके लिए आत्मा के शास्वत श्रेय में विघ्न डालना अज्ञान है । इस प्रकार पुन पुन चिन्तन करना अनित्य भावना है । (२) श्रशरणभावना यदि तुमने मृत्यु की आज्ञा का लोप करने वाला वलवान् पुरुष देखा या सुना हो तो उसी की आराधना करके उसके शरण मे जाकर रहो । न देखा सुना हो तो व्यर्थ श्रम करने से क्या लाभ है ? वास्तव में इस विशाल भूतल पर ऐसा कोई समर्थ पुरुष नही जिसके गले में काल का निर्दय पाश न पड़ा हो । तब किस के शरण में जाएँ ? प्राणी जब दुनिवार कालस्पी सिह की दाढ़ो के बीच आ जाता है तो मनुष्य वेचारा किस गिनती मे है, देव भी स्वर्ग से प्राकर रक्षा नही कर सकते । सुरेन्द्र, असुरेन्द्र, नरेन्द्र, नागेन्द्र - सभी अन्त मे काल के जाल मे फँस जाते हैं। कोई उसका निवारण नहीं कर सकता । काल रूपी सर्प से सेवित संसार रूपी वन मे समा पुराण- पुरुप प्रलय को प्राप्त होगये है। उनकी कोई रक्षा नही कर सका । यह काल सर्प चालक वृद्ध सधन-निर्धन, राजा-रंक सभी को समान भाव से हँसता है । पापी जन अपनी और अपने पुत्र-पौत्रों की रक्षा के लिए अनेक अकर्त्तव्य कर्म करते है । वोर हिस का अनुष्टान करके
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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