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________________ पहला अध्याय। योग्य), स्तोता ( स्तुति-फर्ता ), स्तुति (गुण-गान ) और उसका फल इन चारों बातोंको जान कर उन्होने स्तुति करना आरम्भ किया । हे तीन लोकके स्वामी और देवोंके देव वीरप्रभु! आपके गुण अपार है; अतएव उनको गानेके लिए इन्द्र जैसा भारी शक्तिवाला भी जब असमर्थ है तब मुझ जैसे मन्द बुद्धियोंकी तो ताकत ही क्या है जो आपके गुणोंका गान कर सकेपरन्तु तो भी आपकी भक्तिके वश हो मै आपके गुणोंका कुछ गान करता हूँ । हे देवाधिदेव भगवन् ! आप चित्त-रहित होकर भी चैतन्य-स्वरूप हैं, इन्द्रियोंसे रहित और विशु हैं, कर्म-मल-रहित निर्मल है । रूप, रस, गंध आदिसे रहित होकर भी उनके जाननेवाले हैं । सभी पदार्थोंको हमेशा जाननेवाले सर्वज्ञ हैं । तीन लोकके पति हैं । हे वीर प्रभु! मैं आपकी वन्दना कर आपको नमस्कार करता हूँ। इस विपुलाचलको सुशोभित कर आपने यहाँ लोक अलोक प्रकाशित किया है, अतः आप जीव मात्रको पापसे बचानेवाले एक रक्षक हैं । हे प्रभु ! मैं आपकी कहॉ तक तारीफ करूँ, आपने वालपनमें ही तो काम जैसे वीरको वशमें कर लिया और खेल-कूदके वक्त सॉपोंका भेष बना वना कर जो देवता-गण आपके पास आये थे उन्हें तथा और और शत्रुओंको जीत कर आपने अपने 'वीर' नामको सार्थक कर दिखाया । हे भगवन् ! एक दिन आप खेल रहे थे और इसी समय वहाँ आकाशगामी कोई योगीजन आ निकले । उन्होंने आपको खेलते हुए देखा और देखते ही उनका एक भारी सन्देह दूर हो गया, जो उनके हृदयमें कीलेकी भॉति चुभ रहा था । इसी कारण उन्होंने आपको सन्मति कहा और आपकी भारी भक्ति की--पूजा-प्रशंसा की । इसी तरह मुनि-अवस्थामें आप एक दिन ध्यानस्थ थे। उस समय आपके ऊपर शंकरकी दृष्टि जा पड़ी। उसने क्रोधमें आ आपको भारी उपसर्ग किया, पर वह आपको रंच मात्र भी न चला सका । तब उसने आपको महावीर कहा और आपकी खूब स्तुति की। आपका ज्ञान-चंद्र पूर्ण वृद्धिंगत है, इस लिए आप वर्द्धमान हैं । इस भाँति पूर्ण भक्तिभावसे भगवानका स्तवन कर श्रेणिक महाराज जाकर मनुष्योंके कोठेमें बैठ गये । पश्चात् वीरप्रभुने कंठ, तालु आदिकी क्रियाके विना ही निरक्षरी दिव्यध्वनिके द्वारा धर्मका उपदेश करना आरम्भ किया। वे कहने लगे कि राजन् ! धर्ममें जी लगाओ।धर्म दयाको कहते है। इस दयाधर्मके दो भेद है, एक सनिधर्म और दूसरा श्रावकधर्म । पहले धर्ममें तिल-तुष मात्र भी परिग्रह नहीं होता।
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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