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________________ ཡོཊྛཱ ལླཾཟླསྶཝ 71. भिण्ड जह ग जाणियउ रियदेहह परमत्यु सो अंधउ अवरह श्रधयह किम दरिसावइ पथु 72 जोइय भिण्टाउ झाय तुह 1 ते अप्पाणु जइ दे अव्यय (वढ ) 8 / 1 वि (सिद्ध) 2 / 1 वि (क) व 3 / 2 सक ( भिण्ण-अ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक=भिन्न (ज) 3/2 स अव्यय (जारण-जारिणय) भूकृ 1 / 1 'अ' स्वार्थिक [ ( यि ) - (देह) 6 / 1] (परमत्थ) 1 / 1 (त) 1 / 1 सवि (अ) 1 / 1 वि (अवर) 4/2 वि (अधय) 4 / 2 वि अव्यय ( दरिसाव ) व 3 / 1 सक (पथ) 2/1 ( जोइ - य) 8 / 1 'य' स्वार्थिक ( भिण्ण) 2 / 1 ( भाय) विधि 2 / 1 सक (तुम्ह) 1 / 1 स (देह) 6/1 ( तुम्ह ) 6 / 1 (अप्पा) 2 / 1 अव्यय (देह) 2/1 तब = हे मूर्ख = सिद्ध = कहते हैं वि 'अ' स्वार्थिक पाहुडदोहा चयनिका ] == जिसके द्वारा = नहीं =जाना गया निज देह से = परमार्थ === वह =अन्धा = दूसरो के लिए == श्रधो के लिए किस प्रकार = दिखाता है = मार्ग हे योगी भिन्न को ध्यान कर =तू देह से = तेरी = श्रात्मा को =यदि = देह को 1 कभी-कभी पचमी के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग पाया जाता है (हे प्रा व्या 3-134) [ 63
SR No.010431
Book TitlePahuda Doha Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1991
Total Pages105
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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