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________________ सगति दृढतापूर्वक छोड देनी चाहिए (81)। उनकी सगति की जानी चाहिए जो 'रसो व रूपो' मे आसक्त नही है (55,73) । ऐसे लोगो को ही मित्र की कोटि मे रखा जाना चाहिए (73) 13 कुसगति के त्याग के पश्चात ही साधक लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए मानसिक तैयारी करे । साधक घर, नौकर-चाकर, शरीर व इच्छित वस्तुप्रो को अपनी न समझे (7)। ये सभी वस्तुए प्रात्मा से अन्य हैं और कर्मों से उत्पन्न हैं अतः नष्ट होनेवाली और बनावटी हैं (9, 10)। वह विचार करे कि जगत धन्धे मे उलझा हुआ है और ज्ञानरहित होकर हिंसादि कर्मों को करता है । वह आत्मा के विषय मे एक क्षण भी विचार नही करता है, यह स्थिति दुःखदायी है जिससे बचा जाना चाहिए (6) । सदुपदेशो को ग्रहण करने के लिए मन चिंतारहित होना चाहिए (27)। निश्चिन्तता मे ही मन की एकाग्रता हो पाती है और सदुपदेश ग्रहण करने की भूमिका बनती है । साधक विचार करे कि ज्ञानमय आत्मा को छोडकर सभी कुछ कर्म-कृत है (23-24)। अतःपर वस्तु का मनन उच्चतम लक्ष्य की प्राप्ति मे बाधक है (40) । साधना का मार्ग आत्मा मे रुचि और मानसिक तैयारी से ही साधक सयम-मार्ग पर चलने के लिए योग्य बनता है (62)। इन्द्रिय-सयम साधना का क्रियास्मक रूप है । पाहुडदोहा का कथन है कि इन्द्रिय-विषयो मे रमण न किया जाय (50) । इन्द्रिय-विषय-सुख दो दिन के हैं, फिर दुखो का क्रम शुरू हो जाता है । हे जीव । तू अपने कधे पर कुल्हाडी मत चला (11)। हे मनुष्य । इन्द्रिय-विषयो का सेवन करने से तो तू दुखो का हो साधक होता है. इसलिए तू निरन्तर जलता है, जैसे घो से अग्नि जलता है (66) । पाहुडदोहा का कहना है कि यदि इन्द्रियो का प्रसार रोका गया है तो यही परमार्थ है (85) | चित्त की निर्मलता साधना के .लिए आवश्यक है इसके विना बाहरी तप व्यर्थ है, (35) । अन्याय न करना और अहिंसा का पालन-इन दो सद्गुणो के साधक के जीवन में प्रविष्ट होने पर साधना सामाजिक आयाम ग्रहण कर लेती है और प्रशमनीय हो जाती है (78) । साधना में ध्यान का महत्व सर्वोपरि है। जो व्यक्ति निर्मल ध्यान मे ठहर जाता है वह दूसरे पदार्थों के साथ पाहुडदोहाचयनिका ] [ VII
SR No.010431
Book TitlePahuda Doha Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1991
Total Pages105
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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