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________________ अनुवाद ४७ १५१ गुणों के रत्नाकर (समुद्र) को छोड़कर विक्री की वस्तुओं के ढेर में फेंके जाते हैं, और फिर वहां शंखों का क्या विधान होता है ? वे फूंके जाते हैं, इसमें भ्रान्ति नहीं। (अर्थात् जो सत्संगति छोड़ देते हैं उनकी बड़ी दुर्गति होती है)। १५२ हे हताश मधुकर! कल्पवृक्ष की मारी के परिमल का रस लेकर अव पलाश पर भ्रमता फिरता है। तेरा हृदय क्यों न फूट गया और तूं मर क्यों न गया? १५३ मूंड मुंडाकर शिक्षा ली और धर्म की आशा वढी। किन्तु कुटुम्ब का त्याग तभी (सार्थक ) है जो पराई आशा छोड़ दी। १५४ जो नग्नत्व (दिगम्बरत्व) का गर्व करते है और विगुप्त (वस्त्रधारियों) को कुछ नही गिनते वे वाह्य और अभ्यंतर परिग्रहों में से एक का भी त्याग नहीं करते। (अर्थात् अपने वेप का गर्व करना और दूसरों के वेप को हीन गिनना सच्चे त्याग का लक्षण नहीं है)। अहो! इस मन रूपी हाथी को विध्य (पर्वत) की ओर जाने से रोको। वह शील रूपी वन को भंग कर देगा और फिर संसार में पड़ेगा। जो पढे लिखे हैं, जो पंडित हैं, जिनके मान-मर्यादा है, वे भी महिलाओं के पिंड में पड़ कर चक्की के पाट के समान चक्कर काटते हैं। १५७ मुष्टि द्वारा भेदे हुए धर्म (मर्म) को तूं तव तक स्पर्श करके चाट ले जव तक शंख में की जिह्वालोलुपी सीप के सदृश शिथिल न हो जाय । (3)
SR No.010430
Book TitlePahuda Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBalatkaragana Jain Publication Society
Publication Year1934
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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