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________________ अनुवाद १३२ राग के कलकल से, छह रसों से व पांच रूपों से . जिसका चित्त भुवनतल में रक्त न हुआ, हे जोगी! उसको मित्र बना। १३३ समस्त विकल्पों को तोड़कर आत्मा में मन को धारण कर । वहीं तुझे निरन्तर सुख मिलेगा और तूं शीघ्र संसार को तर जायगा। १३४ रे जीव ! जिनवर में मन को स्थिर कर, विषय-कपाय को छोड़, सिद्धि महापुरी में प्रवेश कर और दुखों को पानी (जलाअलि ) दे। १३५ हे सूंड मुड़ाने वालों में श्रेष्ठ मुंडी! तूने सिर तो सुँडाया पर चित्त को न मोड़ा। जिसने चित्त का मुण्डन कर डाला उसने संसार का खण्डन कर डाला। १३६ आत्मा उसका क्या करेगा जो सर्वांग में सुस्थित रहता है ? जो भला परमार्थ की इच्छा करता है उसका पुण्य-विसर्जन क्या ? १३७ जो गमनागमन से विवर्जित है, त्रैलोक्य में प्रधान है (वह भी देव है) तथा बड़ी गंगा में भी (लोक ने) देव माना है । वह सद्ज्ञान और अज्ञान है। १३८ पुण्य से विभव होता है, विभव से मद; मद से मति मोह और मतिमोह से नरक । ऐसा पुण्य मुझे न हो।
SR No.010430
Book TitlePahuda Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBalatkaragana Jain Publication Society
Publication Year1934
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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