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________________ ३६ पाहुड-दोहा जह बार तो वह जि पर अप्यहं म प धरे । विसयहं कारापे जीवss परयहं दुक्ख सइ ॥ ११८ जी में जाहि अप्पणा त्रितया होहिं न । फल कि पाकहि जेन विम दुक्ख करेहिं तुज्ह ॥ ११९ ॥ विया नेवहि जीव हुं हं सांहिक एप । देण पिराडि पजलड़ हुबहु जेन विएप ॥ १२० ॥ तर संधाणु किट सो श्राशुकु पिरुन्तु । मित्रता निवड सो अच्छछ मिचिनु ॥ १२१ ॥ हलि सहि कार्ड कर सो दप्पण | जहिं पडिवियुग दीस अप्पनु ॥ वाम ay परिहासः । धरि अच्छंतु ग घरवइ दीसह ॥ १२२ ॥ जतु जीवहं म उ पंचदियहं समाए । मो जापि मोकल र पहु पिचाशु || १२३ ॥ किं किल यह अक्सर जे कालिक जति । मग २. २.के. जे. ३. पडिविि ५६. न. ८ वचट, A कति ||१२|| •
SR No.010430
Book TitlePahuda Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBalatkaragana Jain Publication Society
Publication Year1934
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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