SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनुवाद ३३ १०४ जिसका सुन्दर मन भौतिक पदार्थों से भागकर मन के परे (आत्मा में ) स्थिर हो गया वह फिर जैसा भावे तैसा संचार कर सकता है । उसे फिर न भय है न संसार | १०५ जीवों के वध से नरकगति होती है और अभयप्रदान से स्वर्ग । ये दो पथ जाने के लिये बतला दिये गये हैं । जहां भावे तहां लग जा । १०६ सुख दो दिन के हैं, फिर दुःखों की परिपाटी हे हृदय, मैं तुझे सिखाता हूं । वाट ( सच्चे मार्ग ) पर चित्त दे । १०७ हे मूढ ! देह में रंजायमान मत हो । देह आत्मा नहीं है ; देह से भिन्न जो ज्ञानमय है उस आत्मा को तू देख | १०८ जैसा प्राणों का झोंपड़ा तैसा, अहो, यह काय है । उसमें प्राणिपति निवास करता है। हे जोगी ! उसी में भाव कर । १०९ मूल को छोड़कर जो डाल पर चढता है उसको जोग अभ्यास कहां ? हे मूर्ख ! विना औंटे हुए कपास के चीर नही बुना जाता । ११० जिनके सब विकल्प छूट गये हैं, जो चेतन भाव में गये हैं, और निर्मल ध्यान में स्थित हैं उनका आत्मा पर के साथ खेलता है ।
SR No.010430
Book TitlePahuda Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBalatkaragana Jain Publication Society
Publication Year1934
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy