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________________ अनुवाद बहुत पढा जिससे तालू सूख गया पर मूर्ख ही रहा । उस एक ही अक्षर को पढ जिससे शिवपुरी का गमन हो। श्रुतियों का अन्त नहीं है, काल थोडा भौर हम दुद्धि है । इसलिये केवल वही सीखना चाहिये जिससे तूं जरा-मरण का क्षय कर सके। ४९९ निर्लक्षण, स्त्री-वहिप्कृत और अकुलीन मेरे मन में वसा है। उसके कारण माहुर लाई गयी जिससे इन्द्रियाग को सुशोभित किया। १०० मैं सगुण हूँ और प्रिय निर्गुण, निर्लक्षण और निःसंग है। एकही अंग रूपी अंक अर्थात् कोठे में वसने पर भी अंग से अंग नहीं मिल पाया। १०१ जिसका चित्त सव रागों में, छह रसों में व पांच रूपों में भुवनतल में रक्त नहीं है, हे जोगी, उसे अपना मित्र बना। १०२ जिनका तप थोडा भी शरीर का संग करके स्थित है (अर्थात् जो तपस्या करते हुए भी थोड़ा बहुत शरीर का मोह रखते है) उन नरों को भी मरण की छोटीसी आग दुस्सह होती है। १०३ जिनकी देह गलती है उनकी मति, श्रुति, धारण, ध्येय सव गल जाता है। तव उस अवसर पर, हे मूर्ख! विरले ही देव का स्मरण करते हैं।
SR No.010430
Book TitlePahuda Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBalatkaragana Jain Publication Society
Publication Year1934
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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