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________________ ૨ पाहुड - दोहा देहहि उभ जरमरणु देहहि वण्ण विचित्त । देहहो या जाणि तु देहहि लिंगई मित्त || ३४ ॥ अस्थि ण उन्भउ जरमरणु रोय वि लिंगई वण्ण | णिच्छेड़ अप्पा जाणि तुहुं जीवहों के वि सण्ण ॥ ३५ ॥ कम्महं केरल भावडर जड़ अप्पाणं भणेहि । तो विण पावहि परसपर पुणु संसारु भमेहि ॥ ३६ ॥ अप्पा मिल्लिचि णाणमउ अवरु परायउ भाउ | सो डेविणुजीव तुहुं हि युद्धसहाउ || ३७ ॥ वणवण णाणमउ जो भावड़ सम्भार ! मंतु णिरंजणु सो जि सिउ तहिं किजइ अणुराउ || ३८ ॥ तिनुयाणि दीसह देउ जिणु जिनवरि निहुंचणु एउ | जिणवरि दीमइ सयलु नग को विण किन भेट || ३९ ॥ पुज्दछु बुज्दहु जिणु भणड़ को ज्झई हरि अण्णु | अप्पा देह पाणमउ छु बुझियर विभिण्णु ॥ ४० ॥ क. निच्छवि अणु वियाणि तु. २ क. निक. ३. क. गणा. ४ . शायद. ५. वि. क. ७. दे.
SR No.010430
Book TitlePahuda Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBalatkaragana Jain Publication Society
Publication Year1934
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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