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________________ २० २१ २२ २३ ૨૪ २५ अनुवाद विप व विषधर (सर्प) बहतर हैं, अग्नि वहतर है, वनवास का सेवन वहतर है: किन्तु जिनधर्म से पराङ्मुख मिथ्यातियों के साथ निवास अच्छा नही । जो मूल गुणों को उन्मूल कर उत्तर गुणों में संलग्न होते हैं वे डाल के चूके वानरों के समान बहुत नीचे गिरकर भग्न होते हैं । यदि आत्मा को नित्य और केवलज्ञान - स्वभाव जान लिया, तो फिर, हे मूर्ख ! इस शरीर के ऊपर क्यों अनुराग करता है ? यहां चौरासी लाख योनियों के मध्य ऐसा कोई प्रदेश नही, जहां, जिनवचन को न पाकर, यह जीव भ्रमण न कर चुका हो । जिसके मन में ज्ञान विस्फुरित नही हुआ वह मुनि सकल शास्त्रों को जानते हुए भी, कर्मों के हेतु को करता हुआ, सुख नही पाता । वोध से विवर्जित, हे जीव ! तूं तत्व को विपरीत मानता है । जो भाव कर्मों द्वारा निर्माण हुए हैं उन्हे आत्मा के भाव कहता है । ( अर्थात् यह अज्ञान का ही कारण है कि जीव पर को आत्म समझता है ) । २६ मैं गोरा हूं, मैं साँवला हूं, मैं विभिन्न वर्ण का हूं, मैं दुर्बलाङ्ग हूं, मैं स्थूल हूँ; हे जीव ! ऐसा मत मान ।
SR No.010430
Book TitlePahuda Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBalatkaragana Jain Publication Society
Publication Year1934
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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