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________________ .अनुवाद १३ हे मूढ ! यह समस्त कर्म जाल है तूं प्रकट भुस को मत . कूट । घर, परिजन को शीघ्र छोड़कर निर्मल शिव-पद में प्रीति कर। जिनका वस्त्र अम्बर है (अर्थात् जो दिगम्बर हैं, या जिनका निवास आकाश में है, अर्थात् जो मुक्त हैं। उनका मोह विलीन हो जाता है, मन मर जाता है, श्वास निश्वास छूट जाता है और केवलज्ञान प्रकट हो जाता है। सर्प कांचुली तो छोड़ देता है किन्तु जो विप है उसे नही छोड़ता। (इसी प्रकार द्रव्यलिङ्गी मुनि) वेप धारण कर लेता है परंतु भोगों के भाव का परिहार नहीं करता। १६ जो मुनि विषयसुखों को छोड़कर पुनः उनकी अभिलापा करता है वह (केश-) लौच और (शरीर-) शोपण का क्लेश सह कर फिर भी संसार में भ्रमण करता है। विषय-सुख दो दिन के हैं, फिर वही दुखों की परिपाटी है। भूलकर, हे जीव, तूं अपने कंधे पर कुल्हाड़ी मत मार। १८ उपटन और तैलमर्दन की चेष्टा कर और सुमिष्ट आहार दे, तो भी दुर्जन के प्रति किये हुए उपकारों के समान समस्त देह निरर्थ जानेवाली है। आस्थिर, मैले और निर्गुण काय से जो स्थिर, निर्मल और गुणसार क्रिया वढ सकती है वह क्रिया क्यों न . की जाय ? (अर्थात् इस विनाशी, मलिन और निर्गुण शरीर को स्थिर, निर्मल और गुणयुक्त आत्मा के ध्यान में लगाना चाहिये।
SR No.010430
Book TitlePahuda Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBalatkaragana Jain Publication Society
Publication Year1934
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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