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________________ रचनाकाल ३१ · यह रामा में लग गया वह और कहीं कैसे रति कर सकता है, तब फिर नारी के निवारण के उपदेश का मतलब ही क्या रहा? और यदि रहा भी तो 'पराई नार' का विशेषण तो यहां बिलकुल ही अयुक्त है । इस ग्रंथ का उपदेश जोगियों के लिये दिया गया है । ऊपर के ही दोहे में जोगी को सम्बोधन किया है। जोगी सस्त्रीक नही हुआ करते, अतएव यदि उनको उपदेश देना था तो 'पराई' विशेषण लगाने की कोई आवश्यकता नही थी । स्पष्टतः उपदेश गृहस्थ के लिये है । उसे अपनी स्त्री को छोड़ अन्य स्त्रियों से विक्ति का उपदेश दिया गया है। फिर जीभ निवारण के उपदेश का तो यहां कोई प्रसंग ही नही है । वह बात यहां बिलकुल वेमेल जँचती है। इस प्रकार पूर्वापर प्रसंग पर दृष्टि डालने से यह दोहा प्रस्तुत ग्रंथ में आगन्तुक सिद्ध होता है । उसको यदि हम यहां से हटा दें तो भी प्रसंग में कोई बाधा नहीं पड़ती । अब इसी दोहे का सावयधम्म के नं. पर विचार कीजिये । वहां वशीभूत होने के २९ उससे पूर्व कर्ता ने एक एक इंद्रिय में दोप दिखाये हैं और फिर प्रस्तुत दोहे में उनके सम्बन्ध में सचेत होने का उपदेश दिया है। गृहस्थों को जीभ की लोलुपता और काम की प्रेरणा अधिक हुआ करती है । अतः इन दोनों इन्द्रियों के सम्बन्ध में कवि ने गृहस्थों को विशेष रूप से सचेत रहने का उपदेश दिया है । यहां यह दोहा स्वाभाविक है । उसके यहां से अलग करने में एक कमी का बोध होगा । अतएव मानना पड़ता है कि यह दोहा सावयधम्म का मूल अंग है ।
SR No.010430
Book TitlePahuda Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBalatkaragana Jain Publication Society
Publication Year1934
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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