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________________ १२२ पाहुड-दोहा __१७०-१७२ इन तीन दोहों में योग व ध्यान की उस अवस्या का वर्णन हैं जिसे वेदान्त में निर्विकल्पक समाधि कहा है। उस समय योगी को लय, विक्षेप, कपाय और रस इन चार विनों से सचेत रहना चाहिये जैसा गौडपाद कारिका ३, ४४-४५ में कहा है लये सम्बोधयेच्चित्तं विक्षिप्तं शमयेत्पुनः । सकपायं विजानीयाच्छमप्राप्तं न चालयेत् ॥ नास्वादयेद्रसं तत्र निःसमः प्रज्ञया भवेत् ॥ इसी अवस्था को जैनाचार्यों ने रूपातीत ध्यान कहा है जिसके सम्बंध में शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में कहा है वदन्ति योगिनो ध्यानं चित्तमेवमनाकुलम् । कथं शिवत्वमापनमात्मानं संस्मरन्मुनिः ॥१७॥ विवेच्य तद्गु गग्रामं तत्स्वरूपं निरूप्य च । अनन्यशरणो शानी तस्मिन्नेव लयं व्रजेत् ॥१८॥ [करण ४०] १७४. मन की वेल का चारण न होने दिया, अर्थात् मन की वेल को न बढने दिया, अर्थात् मन का लय कर डाला। हम 'ण' को 'नु' ( ननु ) के अर्थ में लेकर यह अर्थ भी कर सकते हैं कि जिसने मन की वेल को चरा डाली अर्थात् नष्ट कर दी । सावयधम्मदोहा में 'ण' नु के अर्थ में कई बार आया है। १७७. यह दोहा जिस रूप में है उससे उसकी दूसरी
SR No.010430
Book TitlePahuda Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBalatkaragana Jain Publication Society
Publication Year1934
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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