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________________ १०६ पाहुड-दोहा लोकापवाद के डर से वह प्रकटरूप से मांस न खा सका। अतएव उसने अपने एक कर्मप्रिय नामक रसोइये को गुप्तरूप से मांस पकाने के लिये कहा। रसोइया प्रतिदिन नानाप्रकार के जीवों का मांस पकाता किन्तु किसी न किसी अड़चन के कारण राजा उसे खा न पाता। कर्मप्रिय को एक दिन सांप ने उस लिया जिससे मरकर वह स्वयंभूरमण समुद्र में महामत्स्य हुआ। राजा मांसभोजन की इच्छा को तप्त न कर पाया किन्तु लोलुपता के कारण मरकर उसी महामत्स्य के कान में शालि अर्थात तंदुल के आकार का कीडा हुआ। वह उस महामत्स्य के मुख्य में अनेक जलचर जन्तुओं को प्रवेश करते हुए और पुनः बाहर आते हुए देखकर अपने मन में कहता 'अहो, यह मत्स्य बड़ा मूर्ख और अभागी है जो अपने मुँह में आये हुए जन्तुओं को भी छोड़ देता है। यदि मैं इतना बड़ा मुँह पाता तो सारे समुद्र को जीवरहित कर डालता। इस प्रकार मांस खाने की शक्ति न होते हुए भी कुभावना के कारण शालिसिक्य मर कर सप्तम नरक को गया। दोहा ४ और ५ का भगवद्गीता के निम्न श्लोकों से मिलान कीजिये न कर्मणामनारम्भानेकय पुरुषोऽनुते। न च संन्यसनादव सिद्धिं समधिगच्छति ॥४॥ 'न हि कश्चित्क्षणमपि जात तिष्टत्यकर्मत् । कार्यत हावाः कर्म सर्वःप्रतिजर्गुणैः ॥ ५ ॥
SR No.010430
Book TitlePahuda Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBalatkaragana Jain Publication Society
Publication Year1934
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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