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________________ अनुवाद ६७ २१७ जो वादविवाद करते हैं, जिनकी भ्रान्ति नही मिटी और जो अपनी बड़ाई करने में रक्त हैं वे भ्रान्त हुए ( संसार में ) भ्रमण करते रहते हैं । २१८ काय है इसलिये आहार किया जाता है, काय ज्ञान के लिये प्रयत्न करता है, ज्ञान कर्म के विनाश के लिये है । उसका नाश होजाने पर परम पद है । २१९ काल, पवन, रवि और शशि चारों का इकट्ठा वास है । हे जोगी ! मैं तुझे पूछता हूं पहले किस का विनाश ( होने वाला है ) । २२० शशि पोषण करता है, रवि प्रज्वलित करता है, पवन हिलोरें लेता है । किन्तु सात रजु अंधकार को पेल कर काल कर्मों को खा जाता है । २२१ जो मुख और नासिका के मध्य सदा प्राणों का संचार करता है, जो नित्य आकाश में विचरण करता है, यह जीव उसी से जीता है । २२२ जो आपद् से मूर्च्छित है वह एक चुलु जल से जी उठता है । किन्तु जो गतजीव है उसे पानी के हजारों घड़ों से भी क्या लाभ ? इति प्राभृतदोहा समाप्त ! *
SR No.010430
Book TitlePahuda Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBalatkaragana Jain Publication Society
Publication Year1934
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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