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________________ १४६ ] एकादश सर्ग [ नेमिनाथमहाकाच्यम् । हांके गये, महारथी विषय चल पडे और अभिमान आदि मंनिक तैयार हो गये ॥७४|| उस समय मथे हुए सागर के ममान मोह की अतीव दुसह तथा प्रचण्ड सेना को देखकर चरित्र राज के वीर सैनिक कापने लग गये ।।७५। तब तत्त्वविमर्श रूपी पराक्रमी मन्त्री ने मैनिको को कहा-~-डगे मत, हौसला रखो । धर्यशाली ही शयुमओ को जीतते हैं ॥७॥ विकलाग होता हुआ भी राहु यम के पिता तेज पति सूर्य को भी ग्रस लेता है । सफलता निश्चय ही पराक्रम के अधीन है ||७|| जैसे शेर, अकेला भी, सैकडो हाथियो को मार देता है, यदि मैं उसी तरह मोह के सारे सैनिको को न मारू तो मैं मर्द नही ॥७८।। इसके बाद युद्ध की तुरहियो का शब्द होने पर तथा सैनिको की हुकारो से आकाश के गूजने पर दोनो मेनाओ का मापस मे भयकर युद्ध हुमा ७६।। उन दोनों सेनाओ मे से कभी किसी की विजय होती और कभी किसी फी पराजय । इसलिये जयलक्ष्मी उनके बीच मे पक्षिणी की तरह जल्दी-जल्दी इधर-उधर घूम रही थी 1८०॥ तव सयमराज के बलोद्धत तथा ऋद्ध सैनिको द्वारा ब्रह्मरन्ध्र को तोड़ने वाली मजबूत लाठियो से सिर फोड देने पर काम, वलहीन होकर, अपनी पत्नी-सहित (धरती पर) गिर पडा ।।८१॥ इसके बाद जयशील ध्यान रूपी योद्धा ने शुभलेश्या रूपी बहुत भार गदा से राजा मोह के अनेक सैनिको को पीस कर चूरा बना दिया ॥२॥ - तव यह निश्चय करके, कि आज मेरा अथवा सयमराज का अन्द होगा स्वय राजा मोह, अपने लोभ रूपी सैनिको सहित, युद्ध करने के लिये उठा १८३॥
SR No.010429
Book TitleNeminath Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiratnasuri, Satyavrat
PublisherAgarchand Nahta
Publication Year1975
Total Pages245
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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