SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 213
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नेमिनाथमहाकाव्यम् ] एकादश सर्ग विद्वान् जो यह कहते हैं कि "जो हृदय मे अपने पाता है", क्या यह करता है, वह अभीष्ट वस्तु अवश्य मिथ्या होगा || || [ १३ε आराध्य का ध्यान (कथन) मेरे लिये मैं सचमुच पहले भी राजिमती ( दुखो का घर ) थी । मेरे और नेमि के बीच में आकर विवाता ने वही दुख राशि मेरे ऊपर डाल दी है । भाग्य निश्चय ही दुर्बल पर मार करता है ॥ १०॥ " प्रभो ! अथवा यह सब निश्चय ही मेरे कुकर्मों का फल है । बादल जो मरुथल को छोड देता है, वह मरु के दुर्भाग्य का दोष है ॥११॥ 7 आत्मीय जनो ने प्रगाढ शोक से विह्वल तथा पृथ्वी पर लोटती हुई और इस प्रकार करुण विलाप करती हुई उसे स्नेहपूर्ण गोद मे बैठा कर, आँसूओ से लडखडाते हुए कहा ||१२|| सयानी वेटी राजीमती । धीरज रख, शोक छोड । भाग्य के विपरीत होने पर मनुष्य का क्या क्या बुरा नही होता ॥१३॥ भाग्य ने किसको नहीं छला ? किसे प्रियजन से वियोग नही मिला ? समार मे कौन मदा सुखी रहता है ? किसकी सारी इच्छायें पूरी हुई हैं ? ॥ १४ ॥ यदि मनुष्य को रोने से मनचाही वस्तु मिल जाए, तो लगातार व्यर्थ चिल्लाने वाले वाचाल को कभी दुख ही न मिले | ||१५|| 1 धरती पर अचानक गिरते हुए मेरु पर्वत को भले ही कभी रोक लिया जाए किन्तु प्राणियों के सचित कर्मों के शुभाशुभ फल को नही | ॥१६॥ हे विदुषी ! प्राणी के ऊपर सम्पत्ति और विपत्ति दिन-रात की तरह अवश्य लौट कर आती हैं । इसलिये अव शोक मत कर । धर्म का पालन कर, जो सब मनोरथो को पूरा करने वाला है ॥ १७॥ यह निश्चित है कि प्राणियो के समस्त मनोरथो की पूर्ति पुण्य से ही
SR No.010429
Book TitleNeminath Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiratnasuri, Satyavrat
PublisherAgarchand Nahta
Publication Year1975
Total Pages245
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy