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________________ १२४ ] अष्टम सर्ग [ नेमिनाथमहाकाव्यम् जिनेन्द्र द्वारा फूके गये उम पाञ्चजन्य से बजते हुए तवले की भांति शब्द पैदा हुमा । वह मथे जाते समुद्र की गर्जना के ममान गम्भीर था तथा एक साथ सभी दिशाओ में व्याप्त हो गया था। उसने श्रीकृष्ण के स्पृहापूर्ण हृदय मे भय पैदा कर दिया, जिससे वे नितान्त अपरिचित थे । पर्वतो की गुफाओ से उठी प्रतिगूज से वह तीव्र हो गया । प्रलय काल के समान उसने तीनो लोको को शब्द से भर दिया और उसे मेघ-गर्जना समझकर मयूरियाँ नाचने लगी ॥५८-६०॥ तब कुछ हैरान हुए मुरारि ने, प्रभु के अथाह बल को जानने की इच्छा से, मुस्करा कर भगवान् को कहा-भाई । मेरी भुजा तो झुकाओ ।।६१।। भगवान् ने नारायण की भुजा को कमलनाल की तरह आसानी से झुका दिया। हाथी की सूण्ड तभी तक दृढ होती है जब तक उसे सिंह नहीं छूता ॥६२॥ - इसके बाद श्रीकृष्ण ने समार के एक मात्र स्वामी नेमिप्रभु की लम्बी भुजा को पकडा किन्तु उसे झुकाने मे सफल नही हुए। उस समय वे कल्पवृक्ष की शाखा पर लटके बन्दर के समान लगते थे ।।६३।। तब प्रभु ने नारायण को कहा-“हे लक्ष्मीपति | तुम निर्भय होकर इस समूचे राज्य का स्वेच्छा से पालन करो । समर्थ होते हुए भी मुझे इसकी चाह नहीं" ॥६४॥ लक्ष्मी, सौन्दर्य, विलाम, वश, घर, नारियो के अलिंगन की कामना छोडकर, वैषयिक सुख को तत्त्वत कष्टकर एव तुच्छ मानते हुए तथा अक्षय आनन्द के हेतु ज्ञान, तोप तथा शान्ति के सुख का भोग करते हुए जिनेन्द्र इस प्रकार पिता के घर मे, यौवन मे भी, शान्त (विपयो से विमुख) रहे ॥६५॥ .
SR No.010429
Book TitleNeminath Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiratnasuri, Satyavrat
PublisherAgarchand Nahta
Publication Year1975
Total Pages245
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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