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________________ ११८ ] अष्टम सर्ग [ नेमिनाथमहाकाव्यम् गजगति प्रभु ने धीरे-धीरे बचपन को पार करके और नव यौवन को प्राप्त करके समार की आंखो के लिये अमृत के समान (आनन्ददायक) सुन्दर शरीर विकसित किया (धारण किया) ||| जिनेन्द्र को देखकर विनयावनत जनता ने हृदय में सोचा कि क्या यह नगत का पालन करने के लिये इन्द्र आया है, अथवा शरीर धारण करके कामदेव ? || उसका गुण दूसरो की भलाई के लिये-था, निपुणता संसार को वोध देने वाली थी, ऐश्वर्य समस्त योगियो-को अभीष्ट था और सज्जनता लोगो का सन्ताप दूर करने मे समथ थी ॥१०॥ भवसागर से मुक्ति देने वाले उन पूज्य के पास नवयौवन, अनुपम समृद्धि, उत्तम रूप-सौन्दर्य तथा अद्भुत प्रभुत्व था, परन्तु इनसे उनके मन मे कोई विकार पैदा नही हुआ ॥११॥ मसार मे उन्ही के चरण-कमल पूजनीय हैं, जो तरुणावस्था मे भी विकारो से मुक्त रहते हैं । नदी के वेग से आहत होकर कौन-से वृक्ष नंही , गिरते ? विरले देवदारु ही सीधे रहते हैं ।।१२।।। ___ तत्पश्चात् अपनी सम्पदा की राशि को बढा कर (विभिन्न) ऋतुएं', अपने वृक्षो के पुष्पो के उपहार भेंट करती हुई, उस उदयशील पवित्र तीर्थंकर की सेवा मे उपस्थित हुई ॥१३॥ . धीरे-धीरे शिशिर की शोभा को कम करता हुआ, पेडो- को मलयपवन से पल्लवित करता हुआ तथा कोकिलामओ के. शब्द को- फैलाता हुआ ऋतुराज वसन्त वन-भूमि मे अवतरित हुआ ||१४|| नाना प्रकार के पत्तो, फूलो और फलो से भरी तथा मस्त पक्षियो के कर्णप्रिय शब्द से गुजित समूची वनस्थली सहृदयो के हृदयों को आनन्दित करने लगी ॥१॥
SR No.010429
Book TitleNeminath Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiratnasuri, Satyavrat
PublisherAgarchand Nahta
Publication Year1975
Total Pages245
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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