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________________ १०८ ] पष्ठ सर्ग [ नेमिनाथमहाकाव्यम् हे देव । फिर भी मैं भापकी भक्ति रूपी सन्नी से प्रेरित होकर आपके गुणो की स्तुति करना चाहता हूं। क्या बच्चा, माता के कहने पर, तुतलाती वाणी से अपना नाम नहीं बतलाता ? ॥२७॥ हे आयं I आपको स्तुति ने मनुष्यों के पूर्वजन्मो के कर्म ऐसे नष्ट हो। जाते हैं, जैसे ग्रीष्म के सूर्य की गर्मी से तपायी गयो हिमालय की बर्फ पिघल जाती है ॥२८॥ हे ससार के स्वामी । न्तुति करने पर आप प्रत्येक अवस्था में पापो... को दूर करते है। सूर्य, चाहे वह सायकाल का हो, प्रात. काल का अयवा मध्याह्न का, अन्धकार को अवश्य नष्ट करता है ॥२६॥ है जिनेश्वर । ससार में जो एकचित्त होकर भक्ति से आपका स्मरण करता है, सिद्धि रूपी लक्ष्मी अथवा देवताओ को लक्ष्मी निश्चय ही उसका इस प्रकार आलिंगन करती है, जैसे नारी अपने पति का ॥३०॥ . हे प्रघु | आप जिस हृदय में रहते हैं, उसमें किसी दूसरे देवता को प्रवेश करने नही देते, फिर भी आप "विरोव मुक्त' नाम से प्रसिद्ध है । अथवा महापुरुषो की वास्तविकता को जाना नही जा सकता ॥३१॥ है जिनेश्वर | आपकी आज्ञा से ही यहाँ लोगो मे सिद्धि प्राप्त की है, कर रहे हैं और करेंगे । सूर्य के प्रकाश से ही कमल खिले हैं, खिलेंगे और खिल रहे हैं ।।३२। हे तीर्थंकर | कुछ मूर्ख तुम्हे छोड़कर स्त्रियो मे अनुरक्त देवताओ से प्रेम करते हैं। उन अज्ञानियो के लिये यह उचित है क्योकि व्यक्ति अपने जसे लोगों से ही प्रीति प्राप्त करते हैं ॥३३॥ हे जिन । आपने हो, दूसरो के द्वारा अजेय मोह रूपी पहलवान को जड से नष्ट किया है । चन्द्रमा के अतिरिक्त और कोई रात्रि के अन्वेरे को दूर नहीं कर सका है ॥३४॥
SR No.010429
Book TitleNeminath Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiratnasuri, Satyavrat
PublisherAgarchand Nahta
Publication Year1975
Total Pages245
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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