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________________ पंचम सर्ग तत्पश्चात् (दिक्कुमारियो के जाने के वाद) स्वर्ग में सुधर्मा रूपी झील . का कमल, सिंहासन, जिस पर इन्द्र रूपी राजहस आसीन था, जिनेश्वर के प्रभाव की वायु से प्रेरित होकर सहसा हिलने लगा ॥१॥ तब क्रोध रूपी निशाचरी ने सिंहासन के हिलने का बहाना पाकर इन्द्र के शरीर मे प्रवेश करके उसके क्षमा और विवेक को हर लिया । शत्रु निश्चय ही दोपो पर प्रहार करते हैं ॥२॥ उस (क्रोध की राक्षसी) ने उसके ललाट को तेवडो से भयकर, भौहो को सपों के समान भीषण, आंखो को प्रज्वलित अग्निकुण्ड के समान विकराल और मुह को प्रचण्ड सूर्य के समान बना दिया ॥३॥ तव इन्द्र ने क्रोध के कारण अपने होठो को दान्तो से इस प्रकार काटा जैसे वह कामावेग से शची के अघरो को काटता है, और कोप रूपी वृक्ष के लम्वे पत्तो के समान दोनो हाथो को इधर-उघर हिलाया ॥४॥ इस प्रकार इन्द्र के सारे अग एक-साथ विकार को प्रास हो गये । विपत्ति आने पर कोई विरला विवेकशील व्यक्ति ही धीरज रखता है || तव वज्रपाणि इन्द्र, जिसने पराक्रम से समस्त शत्रुओ को अभिभूत कर दिया था, तीनो लोको को तिनके के बरावर भी न समझता हया और हृदय मे क्रोधाग्नि से जलता हुआ क्षण भर के लिये यह मोचने लगा ॥६॥ कौन हिमालय को सिर से तोडना चाहता है, कौन सिंह को कान से पकड़ना चाहता है , कोन वेचारा आज मेरे क्रोध की जलती ज्वाला में आहुति " बनेगा ॥७॥
SR No.010429
Book TitleNeminath Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiratnasuri, Satyavrat
PublisherAgarchand Nahta
Publication Year1975
Total Pages245
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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