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________________ ( १२ ) खेल-क्रीडा कर रहे थे तो एक राजपूत ठाकुर ने कहा जो इस खेजडी को वरछी सहित ढकावेगा उसे मैं अपनी पुत्री दूंगा। देल्हकुमार के साथ अपना प्राणप्रिय खवास राजपूत नौकर था जिसे सकेत दिया तो उसने इस कार्य का वीडा उठाया। उसने राप्त की चुनौती स्वीकार कर कार्य कर दिखाया पर वरछी से आहत होकर वह तत्काल मर गया। देल्हकुमार इस कण मृत्यु को देखकर एक दम विरक्त हो गया। उस समय वहां क्षेमकीति उपाध्याय श्री जिनवर्द्ध नसूरिजी के साथ स्थित थे, उनके उपदेश से वैराग्य-रग सयममार्ग की और भी दृढ हो गया और समस्त कुटुम्बी जनो को समझा बुझा कर महोत्सव पूर्वक स० १४६३ मिती आपाढ बदि ११के दिन श्री जिनवद्ध नसूरिजी के कर-कमलो से दीक्षा ली। गुरु-महाराज बडे प्रभावक और विद्वान आचार्य थे । आप उनके पास जैनागम एव व्याकरण, काव्य, छन्द, न्याय आदि सभी विषयो का अध्ययन करके विद्वान-गीताथ वने। आपका दीक्षा नाम कीतिराज रखा गया था। स० १४७० मे पाटण नगर मे श्री जिनवर्द्ध नसूरिजी ने आपको वाचक पद से अलकृत किया। आपने गुजरात, राजस्थान उत्तर प्रदेश और पूर्व के समस्त तीर्थो का यात्रा की। राजस्थान मे तो अापका विचरण सविशेप हुआ। __ आप कितने ही वर्षों तक श्रीजिनवर्द्धनसूनिजी की आज्ञा मे उनके साथ विचरे । बाद में कहा जाता है कि जैसलमेर मे प्रभु मूर्ति के पास से अधिष्ठायक प्रतिमा को हटाकर बाहर विराजमान करने से देवी प्रकोप हुआ और श्रीजिनवर्द्ध नसूरि के प्रति लोगो की श्रद्धा मे भेद हो गया। इस मतभेद मे नवीन आचार्य स्थापन करना अनिवार्य हो गया और श्रीजिनमद्रसूरि जी को आचार्य पद देकर श्रीजिनराज सूरि के पद पर विराजमान किया गया। श्रीजिनवर्द्धनसूरिजी की गाखा पिप्पलक-शाग्वा कहलाने लगी। इस गच्छभेद मे श्री कीतिरत्नसूरिजी किस पक्ष मे रहे, यह एक समस्या उपस्थित हो गई। अन्त में जिम पक्ष का भावी उदय दिखाई दे, उधर ही रहना निश्चय किया गया, और आपने अपने ध्यान वल से श्री निनभद्रसूरिजी का उदय ज्ञात कर उनके आमन्त्रण मे उन्हीकी आजा मे रहना स्वीकार किया, क्योकि
SR No.010429
Book TitleNeminath Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiratnasuri, Satyavrat
PublisherAgarchand Nahta
Publication Year1975
Total Pages245
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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