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________________ तीसरा परिच्छेद उसके मुखसे एक भी शब्द न निकल सका। वह तो अपनी रक्षाके लिये कृतज्ञता प्रकट करना चाहती थी, परन्तु विधाताका विधान कुछ ओर ही था। राजकुमारका अलौकिक रूप देखतेही वह तन मनसे उसपर मुग्ध हो गयी। उसका हृदय उसके हाथसे निकल गया। वह अपनी आँखे सकुचाकर व्याकुलता पूर्वक जमीनकी ओर देखने लगी। उसे भी विद्याधरकी भॉति अपने तनमनकी खबर न रही। परन्तु विद्याधर और उसमें यह अन्तर था कि विद्याधर चेतना रहित था, और वह चेतना होते हुए भी मूच्छित सी हो रही थी। वीरता और करता भिन्न भिन्न चीजें हैं। राजकुमार अपराजित वीर होने परभी हृदयहीन न थे। उन्होंने शीघ्रही समुचित उपचार कर उस विद्याधरको स्वस्थ बनाया। उसे भलीभाँति होश आनेपर उन्होंने कहा :-"यदि अब भी तुम्हें युद्ध करनेका हौसला हो, तो मैं तैयार हूँ?" विद्याधरने कहा :-"नहों, अब मैं युद्ध करना नहीं चाहता । सच्चे वीर अपने विजेताका सम्मान करते हैं।
SR No.010428
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year1956
Total Pages433
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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