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________________ - अठारहवा परिच्छेद ७४७ भाग्य विश्वाससे पहले ही यह जान लिया था कि कहाँ परम प्रतापी नेमिकुमार और कहाँ हतभागिनी मैं ! मेरा और उनका योग कैसा ? परन्तु हे नेमिकुमार ! यदि तुम मुझे अपने लिये उपयुक्त न समझते थे, तो फिर मेरे पाणिग्रहण की बात स्वीकार कर मेरे मनमें व्यर्थ ही मनोरथ क्यों उत्पन्न किया ? हे स्वामिन् ! यदि मनोरथ उत्पन्न किया, तो उसे वीचहीमें नष्ट क्यों कर दिया ? महापुरुष तो प्राण जाने पर भी अपने निश्चयसे नहीं टलते। फिर आपने मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया ? हे प्रभो! यदि आप अपनी प्रतिज्ञासे इस प्रकार विचलित होंगे, तो समुद्र भी अवश्य मर्यादा छोड़ देगा। परन्तु नहीं, मैं भूल करती हूँ, यह आपका नहीं, मेरे ही कर्मका दोष है। मेरे भाग्यमें केवल वचनसे ही आपका पाणिग्रहण बदा था। यह मनोहर मातगृह, यह रमणीय और दिव्य मण्डप, यह रनवेदिका तथा हमारे विवाहके लिये जो जो तैयारियाँ की गयी हैं, वे सब अब न्यर्थ हो गयीं। 'मंगलगानोंमें जो गाया जाता है, वह सब सत्य नहीं होता'यह
SR No.010428
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year1956
Total Pages433
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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