SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 388
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अठारहवाँ परिच्छेद ગર है । जिस प्रकार बलराम मेरे वलसे इस संसारको तृणवत् मानता है उसी प्रकार अब मैं आपके वलसे जगतको तृणवत् समझँगा ।" इतना कह कृष्णने नेमिक्कुमारको विदा कर दिया । इसके बाद उन्होंने बलरामसे कहा :- "हे बन्धु ! तुमने नेमकुमारका बल देखा ? मैं समझता हूँ कि त्रिभुवनमें कोई भी इसके चलकी समता नहीं कर सकता । मैं वासुदेव होने पर भी उसकी भुजामें उसी तरह लटक कर रह गया, जिस प्रकार पक्षी वृक्षकी शाखामें लटक कर रह जाते हैं। निःसन्देह चक्रवर्ती या सुरेन्द्र भी अब नेमिकुमारके सामने नहीं ठहर सकते। यदि इस बलके कारण वह समूचे भरतक्षेत्रको अपने अधिकारमें करले, तो उसमें भी हमें आश्चर्य न करना चाहिये । और वह कुछ न कुछ ऐसा उद्योग जरूर करेगा ; क्योंकि यह कभी सम्भव नहीं कि वह अपना सारा जीवन यों ही बता दे । · बलरामने कहा :- " आपका कहना यथार्थ है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि नेमकुमार बड़ेही बलवान १
SR No.010428
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year1956
Total Pages433
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy