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________________ नेमिनाथ चरित्र हो ! इसके बाद वह अपने शरीरको साफ़ रखनमें बहुत तत्पर रहने लगी। यदि आर्याएँ इसके लिये उसे मना करती, तो वह उनसे झगड़ा कर बैठती। कुछ दिन तक उसकी यही अवस्था रही। अन्तमें वह अपने मनमें कहने लगी, कि पहले जब मैं गृहस्थ थी, तब यह आर्याएँ मेरा बड़ाही सम्मान करती थीं। इस समय मैं भिक्षाचारिणी और इनके वेशमें हो गयी हूँ, इसलिये इनके जीमें जो आता है वही कहकर यह मेरी अवज्ञा किया करती हैं। मैं अब इनके साथ कदापि न रहूँगी।" . इस प्रकार विचार कर वह उनसे अलग हो गयी और अकेली रहने लगी। इसी अवस्थामें उसने चिरकाल तकदीक्षाका पालन किया। अन्तमें आठ महीनेकी संलेखना कर, अपने पापोंकी आलोचना किये बिनाही उसने वह शरीर त्याग दिया। इस मृत्युके बाद सौधर्म देवलोकमें देवी हुई और उसे नव पल्योपमकी आयु प्राप्त हुई। वहाँसे च्युत होकर वही अब द्रौपदी हुई है। पूर्वजन्मकी आन्तरिक भावनाके कारण इस जन्ममें
SR No.010428
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year1956
Total Pages433
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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