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________________ T आठव परिच्छेद विदमेषु यात्यध्ववटाकतयी दिशा 1 कोशलेषु च तद्वामस्तयोरेकेन केनचित् ॥१॥ IT FIT - गच्छेः स्वच्छाशये । वेश्म, पितुर्वा श्वसुरस्य वा । 2 2404 ܕ ܕ ܕ ܕ ĭ H तु कापि न स्थातुमुत्सहे हे विवेकिनि ! ॥२॥", E Raine 2N अर्थात् जिस दिशा में वटवृक्ष है, उसी दिशा में त विदर्भ देश जानेका रास्ता है और उसकी बायीं ओरसे जो रास्ता जाता है, वह, कोशल देशकी ओर गया है। हे विवेकिनि ! इन दोमेंसे इच्छानुसार एक रास्तेको पकड़कर तुम, पिता या श्वसुरके यहाँ चली जाना: । तुम इन दोमेंसे किसी भी एक स्थानमें रह सकती हो, परन्तु sto "" मेरी इच्छा तो कहीं भी रहनेकी नहीं होती " ८) & fy pa " यह सब कार्रवाई करने के बाद नल उस स्थानसे तो चल दिये, किन्तु उनको इससे सन्तोष न होता था । -- वे ! बारंबार सिंहकी भाँति : घूम-घूमकर अपनी सोती हुई : प्रियाको देखते जाते थे ! - जब वे उससे कुछ दूर निकल गये, और उसका दिखलाई देना बन्द हो गया, तब उनका हृदय मचल पड़ा । वे अपने मनमें कहने लगे यह बहुत ही चुरा किया। दमयन्ती- मुझपर विश्वासकर २०
SR No.010428
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year1956
Total Pages433
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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