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________________ त ( २ ) होनेवाले शोक और मोहकी आगमें प्राणी सदा झुलसता रहता है, सुख और शान्तिका लेश भी वहाँ उसे नहीं मिलता। संसारमें लौकिक कारणोंमें समानता होनेपर भी कार्यमें बड़ा भेद (वैचित्र्य ) देखा जाता है। एक ही माता-पितासे उत्पन्न हुए तथा समानरूपसे पालित-पोषित बालकोंमें भिन्नता देखी जाती है। कोई बुद्धिमान्, कोई मूर्ख, कोई सुखी, कोई दुःखी, कोई धनवान्, कोई निर्धन एवं कोई स्वस्थ, कोई रोगी देखनेमें आते हैं। सूक्ष्म दृष्टिसे विचार करनेपर इस वैचित्र्यका लौकिक कारण हमें कुछ भी नहीं प्रतीत होता। इसलिए व्याकरणके महाभाष्यकार श्रीपतञ्जलिमुनिने कहा है 'समानमीहमानानामधीयानां केचिदर्थैर्युज्यन्ते , नापरे, तत्र किं कर्तुं शक्यतेऽस्माभिः।' अर्थात् समान परिश्रमसे अध्ययन करनेवाले छात्रोंमें कोई-कोई पण्डित होते हैं, कोई-कोई नहीं होते, इसमें हम क्या करें, क्योंकि हम समान रूपसे पढ़ानेसे अधिक और क्या कर सकते हैं ? ___ इसीसे मानना पड़ता है कि इस विचित्रताका कारण कर्म है । उसीके अनुसार जीव ऊँच, नीच योनियों में प्राप्त होकर सुख, दुःख आदि विभिन्नविभिन्न भोगों का अनुभव करता है। विषयी पुरुषको संसारमें सुखके अनुभवकी बेलामें जो वस्तु सुखरूप प्रतीत होती है, सूक्ष्म विचार करनेपर वास्तवमें वह भी दुःखरूप ही है। कारण सुख-भोगके समय सुखके साधनोंमें राग और दुःखके कारणोंमें द्वेष चित्तमें वना ही रहता है। इन्द्रियोंकी विषयों में जो स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है, इसी आसक्तिको राग कहते हैं और अभीष्ट पदार्थमें बाधा डालनेवाले व्यक्तिके प्रति चित्तमें जो प्रतिकूल वृत्ति होती है, उसको द्वेष कहते हैं। राग-द्वेष के कारण ही सुखके अनुभवसे सुखके संस्कार और दुःखके अनुभवसे दु:खके संस्कार उत्पन्न होते रहते हैं, जिनसे कि जन्म-परम्परा बनी रहती है। क्योंकि इन राग-द्वेष और उनके संस्कारोंसे ही प्रेरित होकर प्राणी पुण्यपापात्मक अनेकानेक प्रवृत्तियोंमें फँसकर शोक, मोह, आदिसे जन्म, जरा, मरणरूप दुःख परम्पराओंके
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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