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________________ नैष्कर्म्यसिद्धिः अज्ञानहानमात्रत्वान्मुक्तः कम न माधनम् । कर्माऽपमार्टि नाऽज्ञानं तमसीवोत्थितं तमः ॥ २४ ॥ अज्ञान निवृत्ति ही मुक्तिका स्वरूप है। इसलिए भी कर्म उसका साधन नहीं हो सकता । यदि कहिये कि "अज्ञानकी निवृत्ति कमसे क्यों नहीं होती ?' सो यह ठीक नहीं हैं। क्योंकि जैसे अन्धकारमें उत्पन्न हुए रज्जु-सर्प के भ्रमको अन्धकार नहीं दूरं कर सकता, वैसे ही अज्ञानोत्पन्न कर्म मी अज्ञानका नाश करने में असमर्थ है ।। २४ ।। कर्मकार्यत्वाऽभ्युपगमेऽपि दोष एव-- मोक्षको कर्मका कार्य मान भी लिया जाय, तब भी अनेक दोष अाते हैं एकेन वा भवेन्मुक्तिर्यदि वा सर्वकर्मभिः ।। प्रत्येकं चेद् वृथाऽन्यानि सर्वभ्योऽप्येककर्मता ।। २५ ।। क्या एक कर्मका फल मोक्ष है या सम्पूर्ण कर्मोंका ? यदि एक कर्मका फल मोक्ष है, तब तो अन्य सब कर्म व्यर्थ हो जाएंगे और यदि सब कर्म मिल कर मोक्ष जनक हैं, नाना कर्मों के नाना फल जो श्रुतियांम कहे हैं, वे सब असङ्गत हो जाएँगे || २५ ।। इसपर यदि कोई शङ्का करे कि " नित्य नैमित्तिक कर्मों का कोई फल अनिमें नहीं बतलाया है, इसलिए उन कर्मोकों फलकी अाकाङ्क्षा है । मोक्ष भी एक फल है। उसको भी साधनकी ग्राकाङ्क्षा है। इस प्रकार परस्परकी आकाइनास कम और मोक्षका साथ्य-साधनभाव परिशंषानुमानस सहजम सिद्ध होता है । तथा अन्य भी ऐसे बहुतसे कर्म हैं, जिनका फल कुछ भी नहीं बतलाया है । उनका मी मोक्षमें ही विनियोग हो जायगा।".तो यह भी ठीक नहीं है । क्योंकि ] सर्वप्रकारस्याऽपि कर्मणः उत्पत्तित एव विशिष्टसाध्याभिसम्बन्धान पारिशेष्यसिद्धिः। [विधिवाक्य इष्टसाधन काँका प्रतिपादन करते हैं, इष्ट साध्य पदार्थ को कहते हैं, परन्तु मोक्ष तो साध्य नहीं है । "अग्निहोत्रं जुहोति" (अग्निहोत्र करे ) इत्यादि विधिवाक्योंसे ही अग्निहोत्रादि किसी इष्टके साधन है, ऐसा सिद्ध हो जाता है और जिन विश्वजित् प्रादि कर्मोंका कोई फल विविवाक्यों में श्रुत नहीं है, उनका भी स्वर्ग ही फल है, ऐसा निर्णय महर्षि जैमिनिजीने किया है। इस कारण सब प्रकारके कर्माका उत्पत्ति-अपने अपने विधिवाक्यों-से ही किसी न किसी विशिष्ट साध्य फलके साथ अङ्गाङ्गीभावरूप सम्बन्ध पाया जाता है । अतएव परस्पराकाङ्क्षा न होनेके कारण परिशेषानुमानसे कर्म मोक्षका साधन नहीं सिद्ध हो सकता। दुरितक्षपणार्थत्वान्न नित्यं स्याद्विमुक्तये । ‘स्वर्गादिफलसम्बन्धात् काम्यं कर्म तथैव न ॥ २६ ॥
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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