SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नैष्कर्म्यसिद्धि: जिन पुण्य और सुख और दुःख देनेवाला यह शरीर उत्पन्न किया है, उनका तो भोगने से ही क्षय होता है (ज्ञानवादी भी इसी सिद्धान्तपर श्रारूढ़ हैं ) ||१२|| काम्य-प्रतिनिषिद्धकर्मफलत्वात्संसारस्य तन्निरासेनैवाऽशेषाऽनर्थनिरासस्य सिद्धत्वात् किं नित्यानुष्ठानेनेति चेत्, तन्न; तदकरणादध्यानर्थक्यप्रसक्तः । ----- शङ्का - यह संसार काम्य तथा निषिद्ध कर्मोंका ही फल है, अतएव उनकी निवृत्तिसे ही सबकी निवृत्ति होगी । फिर नित्य कर्मों के अनुष्ठानसे क्या प्रयोजन है ? उत्तर- ऐसी शङ्का मत कीजिए । क्योंकि नित्यकर्म कि न करनेसे भी अनर्थका कारण 'पाप उत्पन्न होता है । नित्यानुष्ठानतश्चैनं प्रत्यवायो न संस्पृशेत् । अनादृत्यात्मविज्ञानमतः कर्माणि संश्रयेत् ॥ १३ ॥ अतएव नित्यकर्मो का श्राचरण करनेसे अधिकारी पुरुषको ( नित्यकमोंके न करने से उत्पन्न होनेवाला ) पाप नहीं लगता । इसलिए ( मोक्षप्राप्ति के लिए ) ग्रात्मज्ञानका श्रादर न करके कमौका ही ग्राश्रय लेना चाहिए || १३ || अभ्युपेत्यैवमुच्यते न तु यथावस्थितात्मवस्तुविषयं ज्ञानमस्ति, तत्प्रतिपादकप्रमाणाभावात् । * । यहां तक तो कर्मवादियोंने ब्रह्मज्ञानको स्वीकार करके ही उसको मुक्ति-प्राप्ति में अनावश्यक सिद्ध किया । अब वे लोग कहते हैं कि 'वास्तव में स्वत: सिद्ध श्रात्मवस्तुका ज्ञान कोई चीज़ ही नहीं है, क्योंकि उसकी सिद्धिमें कोई प्रमाण नहीं मिलता । जैसे किया यह विद्यन्ते श्रुतयः स्मृतिभिः सह । विदधत्युरुयत्नेन कर्मातो भूरिसाधनम् ॥ १४ ॥ जितनी श्रुति और स्मृतियाँ हैं वे सभी बड़ी तत्पर होकर कर्मका विधान करती हैं, इसलिए कर्म ही मोक्ष प्राप्तिका पर्याप्त साधन है । स्यात्प्रमाणासम्भवो भवदपराधादिति चेत्, तन्नः यतः वेदान्त वाक्य तो "ज्ञान ही मुक्तिका साधन है, ऐसा प्रतिपादन करते हैं, परन्तु १ 'अकुर्वन् विहतं कर्म निन्दितं च समाचरन् । प्रपक्तश्चेन्द्रियायें प्रायश्चित्तीयते नरः ॥' (म० स्मृ० ) । २ 'तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय' इस श्रुति के अनुसार । ३ यावन्त्यः, भी पाठ है 1
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy