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________________ भाषानुवादसहिता सम्पूर्ण संसार का नाश हो चुका, तब केवल एक श्रात्मा ही अवशिष्ट रह जाता है ॥ ५५ ॥ एवमवगतपरमार्थतत्त्वस्य न शेषशेषिभावस्तत्कारणस्योत्सारितत्वादित्याह वास्तवेनैव वृत्तेन निरुणद्धि यतो भवम् । निवृत्तिमपि मृद्नाति सम्यग्बोधः प्रवृत्तिवत् ॥ ५६ ।। इस प्रकार आत्मतत्त्वके यथार्थज्ञानवाले पुरुषका किसी विधिके साथ शेषशेषी भाव नहीं है। क्योंकि विधिसे प्रवृत्ति उत्पन्न होनेके लिए जो अर्थित्वादि उपेक्षित है उसका कारण अविद्या है, वह तत्त्वज्ञानसे निवृत्त हो गई है, यह कहते हैं ___चूंकि तत्त्वज्ञान प्रवृत्ति और निवृत्तिसे शून्य आत्मवस्तु के अनुरोधसे संसारको नष्ट कर देता है । इसी कारण ज्ञानी पुरुषकी जैसे विधिसे प्रवृत्ति नहीं होती, वैसे ही निवृत्ति भी नहीं होती। केवल वस्तु-स्वभावसे ही अमानित्वादि धर्म उसमें रहते हैं ॥ ५६ ॥ सकृदात्मप्रसूत्यैव निरुणद्धयखिलं भवम् । ध्वान्तमात्रनिरासेन न ततोऽन्यान्यथामतिः ।। ५७ ॥ तत्त्वज्ञानको उत्पत्तिमात्रसे ही अविद्याकी निवृत्ति हो जाती है, यह अन्वय और व्यतिरेकसे ही लोकमें सिद्ध है । अतएव आत्मतत्त्वका यथार्थज्ञान अपनी उत्पत्तिसे ही उसी क्षण मिथ्याज्ञान और तजन्य संस्काररूप सकल जगत्को नष्ट कर डालता है। उसके लिए अभ्यास आदिकी आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि मिथ्याज्ञान आदि अविद्याका कार्य है। इसलिए अविद्याके नष्ट होते ही सारा जगत् नष्ट हो जाता है। अतः इस अवसरमें विधिका अवकाश ही नहीं है ॥ ५७ ॥ 'देशकालाद्यसम्बन्धादेशादेर्मोहकार्यतः । . नानुत्पन्नमदग्धं वा ज्ञानमज्ञानमस्त्यतः॥ ५८ ॥ लोकमें जो घटादिज्ञान उत्पन्न होते हैं, वे तत् तत् देश और कालसे नियत अपने अपने विषयोंके अज्ञानका ही निराकरण करते हैं, न कि सकल अज्ञानका ! इसका कारण यह है कि वे समस्त ज्ञान देश, काल, अवस्थादिसे परिछिन्न हैं और जड़ हैं। आत्मा तो अविद्याकार्य देशकालादिके संसर्गसे रहित और स्वयम्प्रकाश है। अतएव उसमें अन्य अनिवृत्त अज्ञान या उसे निवृत्त करनेके लिए अपेक्षित अनुत्पन्न ज्ञानान्तर भी नहीं है ॥ ५८॥ १-देशकालाद्यसंबन्धान् , और 'देहादे, ऐसा पाठान्तर भी है।
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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