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________________ १५४ नेकसिद्धिः है। अन्य दृश्यपदार्थ सब व्यभिचारी होनेके कारण बाधित हैं।" ऐसा जो निश्चय है, उसीको अन्वय-व्यतिरेक कहते हैं ॥ २३ ॥ एवं विज्ञातवाच्याथै श्रुतिलोकप्रसिद्धितः । श्रुतिस्तत्त्वमसीत्याह श्रोतुर्मोहापनुत्तये ।। २४ ॥ इस प्रकार जिसने अन्वयव्यतिरेकका ज्ञान सम्पादन किया है, उस पुरुषको वेदान्त वाक्य ही पूर्वोक्त एकत्वका प्रतिपादन करता है। यह भी प्राचार्यपादका कहा हुआ है-"द्रष्टा दृश्यभूत दृष्टिका विषय नहीं होता" इत्यादि श्रुति और लोक प्रसिद्धिके अनुसार अनात्माका निरास करके विविक्त (शुद्ध) प्रत्यगात्माका ज्ञान होनेपर श्रति 'तत्त्वमसि' इस वाक्यसे श्रोताके अज्ञानको दूर करने के लिए ऐक्यका प्रतिपादन करती है ॥ २४ ॥ तत्र त्वमिति पदं यत्र लक्षणया वर्तते सोऽर्थ उच्यतेअहं शब्दस्य या निष्ठा ज्योतिषि प्रत्यगामनि । . सैवोक्ता सदसीत्येवं फलं तत्र विमुक्तता ॥ २५ ॥ अहं शब्दमें लक्षणावृशिके द्वारा जिस स्वप्रकाश प्रत्यगास्माका बोध करानेकी सामर्थ्य है, वही 'तत्त्वमसि, इस वाक्यका भी अर्थ है, अर्थात् स्वं पदार्थसे तत्पदके लक्ष्यार्थका कोई भेद नहीं है और दोनोंका ऐक्य होनेसे मुक्ति ही फल है ॥ २५ ॥ अन्यच्चाऽन्वयव्यतिरेकोदाहरणम् । तथा। छित्त्वा त्यक्तेन हस्तेन स्वयं नात्मा विशेष्यते । तथा शिष्टेन सर्वेण येन येन विशेष्यते ॥ २६॥ पूज्यपाद आचार्यने प्रकारान्तरसे अन्वय-व्यतिरेक का उदाहरण देकर जो आत्मा और अनात्माके विवेकको दिखलाया है, वह भी कहते हैं जैसे काटकर अलग फेंक दिये हुए हाथसे स्वयं प्रास्मा पहले 'यह पुरुष सुन्दर हाथ अथवा खराब हाथवाला है, ऐसा कहानेपर भी वर्तमान समयमें वैसा व्यवहृत नहीं होता। वैसे ही जो जो अवशिष्ट स्थूलदेह, श्रोत्रादि इन्द्रिय तथा सूक्ष्मशरीरमें रहनेवाले दुःखिस्वादि धर्म हैं, उनसे पूर्व में विशेषित होनेपर भी इस समय उनसे व्यवहार नहीं होता ॥ २६ ॥ विशेषणमिदं सर्व साध्वलङ्करणं यथा । 'अविद्याध्यस्तमतः सर्व ज्ञात आत्मन्यसद्भवेत् ॥२७॥ 2-अविद्यास्तमसः, ऐसा भी पाठ है।
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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