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________________ माषानुवादसहिता शङ्का-मुमुक्षुकी नित्य और नैमित्तिक विधिसे बोधित कर्मोंमें प्रवृषि तो आपको इष्ट नहीं है । और प्रसङ्घयानकी विधि भी आप नहीं मानते । तब तो किसी तरह से भी शास्त्रीय प्रवृत्ति नहीं है । अतः पाखण्डोंकी तरह परमहंस चर्या भी निर्मूल हो प्रतीत होती हैं। तब सकल श्रुति, स्मृति, इतिहास-पुराणों में प्रसिद्ध अरूढपतितत्व भी नहीं होगा । अथवा विधिबोधित सकल कर्मके परित्याग से श्रारूढपतित हो जाएगा और प्रसङ्ख्यानकी विधि नहीं मानोगे तो नित्य-नैमित्तिक कर्मोंकी निवृत्ति नहीं सिद्ध होगी ? प्रसङ्ख्यानकी विधि यदि मानते हो, तब तो सर्वदा अनन्यचित होकर ज्ञानाभ्यासमें प्रवृत्त होनेसे तविरुद्ध कर्मोंकी निवृत्ति होती है। यदि उसकी विधि नहीं मानते हो तब 'यावज्जीव' इत्यादि श्रतियोंसे जो यावज्जीवन कर्म करनेके लिए कहा है, उसीका अनुसरण करना पड़ेगा। तब फिर सर्वकर्म-संन्यासका अवसर ही नहीं है ?' ___ समाधान-'त्वं' पदार्थ के विवेकके लिए श्रवणादिकी विधि मानी है और तदङ्गतया सर्व-कर्मोंका संन्यास श्रुति और स्मृतिमें विहित है । अतएव अशास्त्रीयत्वादि दोषकी प्रसक्ति नहीं हो सकती है ॥ १२६ ॥ इति श्रीमत्पूज्यपाद श्री श्रीसुरेश्वराचार्यकृत नैष्कर्म्यसिद्धिके तृतीयाध्यायका भाषानुवाद समाप्त हुआ। ASMINATURE
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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