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________________ भाषानुवादसहिता और यह भी नहीं कह सकते कि जैसा हम को अभीष्ट है, वैसा अर्थ कहे हुए न्यायसे प्रतीत नहीं होता। वह न्याय कौनसा है ? यह कहते हैं छान्दोग्य उपनिषद्में दिखाये हुए नामसे लेकर प्राणपर्यन्त पदार्थोसे अात्माको प्रथक समझकर 'अहम्' 'मम' इस प्रकार के अभिमानके परित्यागसे क्षेत्र, पुत्रादि परिग्रहोंसे रहित युष्मदर्थ अनास्म प्रपञ्चसे निःस्पृह अर्थात् उसके उपभोग करनेको तृष्णासे रहित, शमदमादि साधन चतुष्टयसे सम्पन्न होकर- ॥ १२० ॥ भक्त्वा चान्नमयादीस्तान् पञ्चानात्मतयाऽर्गलान् । अहं ब्रह्मेति वाक्याथ वेत्ति चेन्नार्थ ईहया ॥ १२१ ॥ तैत्तिरीयक उपनिषद्ने प्रतिपादित अन्नमयादि पाँच कोशोंमें 'अहम्' 'मम' अभिमानका परित्याग करके स्वरूपप्राप्तिमें प्रतिबन्धक जितने हैं, उन सभीका क्षय करके यदि पुरुष ब्रह्मस्वरूपताका लाभ कर सकता है, तो उपासनादि व्यापारसे क्या प्रयोजन है ? न चेदेवमुपगम्यते वाक्यस्य प्रमाणस्य सतोप्रामाण्यं प्रामोति । तदाह-- यदर्थं च प्रवृत्तं यद् वाक्यं तत्र न चेच्छुतम् । प्रमामुत्पादयेत्तस्य प्रामाण्यं केन हेतुना ॥ १२२ ॥ इस प्रकार अधिकारी पुरुषको वेदान्तसे यथार्थ ज्ञान उत्पन्न होता है, यह बात पहले कही। यदि वादी इस बातको न माने तब वेदान्तवाक्योमें अप्रामाण्यरूप दोषकी प्रसक्ति हो जायगी ? यही कहते हैं जिस बातको समझाने के लिए जो वाक्य प्रवृत्त हुश्रा है, उस वाक्यके श्रवणसे उस अर्थको प्रतीति यदि न उत्पन्न हो, तब उसका प्रमाण किस तरहसे मान सकते हैं ॥१२२॥ अथ मन्यसे-- - जानीयाच्चेत्प्रसङ्ख्यानाच्छब्दः सत्यवचाः कथम् । पारोक्ष्यं शब्दो नः प्राह प्रसङ्ख्यानावसंशयम् ॥ १२३ ॥ ___ हाँ, यदि ऐसा आपका अभिप्राय है कि "अधिकारी पुरुषको जो ज्ञान होता है, वह वेदान्त विहित ध्यानबलसे ही होता है" तब वेदान्तोंका तात्पर्य ध्यानके विधान करने में ही है, ऐसा मानना पड़ेगा ? अद्वितीय वस्तुमें तात्पर्य तो है नहीं फिर प्रत्यक्षादि विरुद्ध अद्वितीय वस्तु में वेदान्त प्रमाण कैसे हो सकता है ? उसको अप्रमाण कहना पड़ेगा। यदि कहिए कि "नहीं, हम लोगों को शब्दसे तो परोक्ष ही ब्रह्मका बोध होता है, शब्द और युक्तिका अभ्यासरूप-ध्यानसे असन्दिग्ध ब्रह्मरूपताका साक्षात् ज्ञान होता है तो इसका उत्तर देते हैं
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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